पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१४०

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हिन्दी साहित्यकी भूमिका भी यह काव्यके विवेचककी दृष्टिसे बच नहीं सकती। यह शाखा स्तोमों के साहित्यकी है। रामायण और महाभारतमें ही स्तोत्रों की संख्या काफी है। पर सन् ईसवीके बाद के संस्कृत साहित्यमें इनकी संख्या बहुत बढ़ गई थी। सबसे पुराना स्तोत्र जो कवित्वकी दृष्टिले विवेचनीय माना जा सकता है बाणका चण्डी-शतक है । फिर मयूरका सूर्यशतक है, शंकराचार्यकी विविध देवताओंकी स्तुति आदि हैं। ऐसा जान पड़ता है कि आमीरोंके आने और उनके धर्म-विश्वा- सोंके संमिश्रणसे भागवत धर्मका जो वैष्णव रूप बादमें चलकर इतना शक्तिशाली हो उठा वह जबतक भागवत धर्मके संश्रवमें नहीं आया था तबतक भीतर ही भीतर लोक-भाषाको और उसके द्वारा शास्त्रीय कवित्वको प्रभावित कर रहा था। इसके पहले हम देख चुके हैं कि हालकी सत्तसईमें अहीर और अहीरिनोंके प्रेमकी लीलाओंका परिचय मिलता है। लोक-भाषामें इन गोप-गोपियोंकी प्रेम-लीलाओंका और भी प्रचार रहा होगा। किसी किसी प्रदेशके ग्राम-गीतोंसे इस मतकी पुष्टि भी हुई है। परन्तु एक बार भागवत धर्मका आश्रय पा लेनेके बाद यह अन्तर्निहित लोक-काव्य प्रचुर मात्रामें शास्त्रप्रभावित काव्यमें भी आने लगा होगा। राधा और श्रीकृष्णके परम दैवत स्वीकृत होनेसे इस क्रियामें कोई बाधा नहीं पड़ी होगी। भारतीय स्तोत्रोंके कवि भक्ति-गद्गद भावसे भी जन कविता करते थे तो शिव, दुर्गा, विष्णु, आदि देवी देवताओंकी शंगार-लीलाके वर्णन करने में कभी कुंठित नहीं होते थे। यह समझना गलत है कि केवल राधा-कृष्ण ही उपास्य और शंगार-लीलाके आश्रय एक ही साथ माने गये। चण्डी, लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा, शिव, विष्णु आदि सभी देवताओंके स्तोत्रोंमें उनकी शृंगार चेष्टाओंका भूरिशः उल्लेख है। यह ज़रूर है कि श्रीकृष्ण और गोपियों की सारी कथायें ही शंगार- चेष्टाकी कथायें है और इसीलिए इनकी स्तुतियों में इसीकी प्रधानता हो गई है। प्राकृत और अपभ्रंशमैं तो बहुत प्राचीन कालसे ही गोपियोंके साथ गोपाल (यह गोपाल सदा कृष्ण ही नहीं हुआ करते थे) के प्रेमकी चर्चा है पर संस्कृतमें इसका सर्वप्राचीन उल्लेख आनंद-बधनके ध्वन्यालोकके एक उदाहरणमें ही पाया जाता है। बादमें ग्यारहवीं शताब्दीमें लीलाशुकके कृष्ण-कर्णामृतकी रचना १ तेषां गोपवधूविलाससुहृदो राधारहः साक्षिणाम् । . क्षेमं भद्र कलिन्दराजतनयातीरे लता वेश्मनाम् ॥ इत्यादि।