पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१३९

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रीति-काव्य कवियोंको इष्ट थी। वे तो लक्षणोंको कवित्व करनेका एक बहाना भर समझते थे। वे इस बातकी परवाह नहीं करते थे कि उनका निर्दिष्ट कोई अलंकार दूसरे किसी में अन्तर्मुक्त हो जाता है या नहीं। कुवलयानंद आर चन्द्रालोकको आश्चय करके या किसी पूर्ववर्ती हिन्दी अलंकार-ग्रंथको उपजीन्य, मानकर ये लोग कविता करनेका बहाना ढूंढ़ निकालते थे फिर भी इस युगमें, ऐसे बहुतसे स्वतंत्र भावसे लिखनेवाले कवि भी थे, परन्तु उनपर रीदि ग्रंथोंका प्रभाव सुस्पष्ट है। लेकिन इस युगकी कविताको विशिष्ट रूप देनेके लिए यही सब कुछ नहीं था। अर्थात् केवल लोक-भाषासे प्रभावित और बादमें सम्पूर्ण भावसे वैज्ञानिक विवेचनाका रूप ग्रहण किया हुआ अलंकार-शान ही इस युगके (रीति-कालके) कवित्वको रूप नहीं दे रहा था। कुछ और उपादान भी काम कर रहे थे यह लक्ष्य करने की बात है कि रीति-कालकी समूची रूढ़ियाँ और कवि-प्रसिद्धियाँ वही नहीं थीं जो प्रचिीन संस्कृत-काच्योंमें मिलती हैं। इनमें बहुत कुछ नई थीं और बहुत-सी पुरानी भुला दी गई थीं। स्त्री-रूपके उपमानोंमेंसे बहुत-से भुला दिये गये थे और पुरुष-रूपके वर्णनको अत्यन्त कम महत्व दिया । गया । एक नई बात जो इस युगकी कवितामें दिखाई पड़ी वह यह है कि प्रायः सभी शृंगारात्मक उत्तम पद्योंका विषय श्रीकृष्ण और गोपि- योका प्रेम है; उन्हींकी केलि-कथायें, उन्हींकी अभिसार-लीलायें और उन्हींकी' वंशी-प्रीति आदि ।' बिहारीलालकी प्रसिद्ध सतसई जो संसारके शंगार- साहित्यका भूषण है, ऐसे गोपी-गोपालकी प्रेम-लीलाओंसे ही मरी है। इस कालकी कवितामें यह बात इतनी अधिकतासे पाई जाती है कि कमी कमी आधुनिक युगका आलोचक बुरी तरहसे इन कवियोंपर बिगड़ खड़ा होता है। कभी कभी इन्हें गंदगीकी नाली बहानेवाले, भगवानके नामपर कलंक प्रचार करनेवाले आदि भी कहा गया है, फिर भी इस विषयमै दो मत नहीं कि ऐसा लिखनेवाले कवि काफी ईमानदार थे। वे सचमुच विचार करते थे कि--- “राधा मोहनलालको जिन्हें न मावत नेह । परियो मुठी हजार दस, तिनकी आँखिन खेह ॥ -मतिराम इस विषयको ठीक ठीक समझनेके लिए हमें एक और प्राचीन भारतीय परम्पराकी जानकारी आवश्यक है। भारतीय साहित्यकी यह शाखा अत्यधिक सम्पन्न है और इसमें इतना अधिक कवित्व है कि इनका विषय अलग होने पर