पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१३८

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हिन्दी साहित्यकी भूमिका वे कान्य जिन्हें संस्कृतमें 'बृहत्त्रयी' (माघ, भारवि और श्रीहर्षके लिखे हुए शिशुपाल वध, किरातार्जुनीय और नैषधीय चरित ) कहते थे, निश्चय- पूर्वक इस अभिनवशास्त्रद्वारा प्रभावित थे। हिन्दीके आविर्भाव-कालमें भी यह प्रवृत्ति पाई जाती है। जिन वीरत्वमूलक और आध्यात्मिकता-प्रवण कथानक- कान्योंका ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, उनमें अलंकारों और रसोको दृष्टिमें रखकर कवित्व-कौशल दिखानेकी प्रवृत्ति है। परन्तु यह प्रवृत्ति बहुत ही शक्तिशाली (और बहुत बार उपहासास्पद) रूपमें हिन्दीकी रीतिकालीन कवितामें प्रकट हुई। इन दिनोंतक यह भाषा मँज- घिसकर साफ़ हो गई थी और कोमलसे कोमल भावको प्रकट करनेका सामर्थ्य रखती थी। इन दिनों उक्त प्रवृत्तिका चरम विकास हुआ। अपने आपमें स्वतंत्र फुटकल पद्योंकी ऐसी भरमार समूचे भारतीय साहित्यमें कहीं भी देखनेको नहीं मिली है, और यद्यपि अधिकांशतः ये पहले लक्षणोंको देखकर उन्हींको दृष्टिमें रख लिखे गये थे, फिर भी इनमें उत्तम पद्योंकी संख्या इतनी अधिक है कि पं० रामचन्द्र शुक्ल जैसे शास्त्रनिष्ठ और दाद देने में अत्यन्त सतर्क पंडितको भी यह कहने में कोई संकोच नहीं हुआ है कि “ ऐसे सरस और मनोहर उदाहरण संस्कृतके सारे लक्षण-प्रन्थोंसे चुनकर इकट्ठे करें तो भी उनकी इतनी अधिक संख्या न होगी।" दो प्रकारसे इस प्रकारके सरस पद्योंकी रचनाको उत्तेजना मिली : पहले अलंकारोंके लक्षणोंपरसे कवित्व करके और फिर नाट्य-विवेचनाके रस-निरूपणके एक अत्यन्त सामान्य पर महत्वपूर्ण अंग नायक-नायिकाके नाना भेद-उपभेदोंकी सृष्टि करके और उनके लक्षणोंपर उदा- इरणों की रचना करके । दूसरी बातकी ओर कवियों की प्रवृत्ति अधिक रही। इस प्रकार लोक-भाषाके जिन पद्योंने एक अलग शास्त्रकी रचनाको जरूरी बना दिया या, काल-क्रमसे उसी शास्त्रने लोक-भाषाको बड़ी दृरतक प्रभावित किया। उत्तरकालीन हिन्दी कविता (या रीतिकालीन हिन्दी कविता) को हम लोक-. साहित्य नहीं कह सकते क्योंकि उसमें प्रत्यक्ष लोक-जीवनसे स्फूर्ति और प्रेरणा पानेकी क्रिया गौण है और लोककी चित्तभूमिपर उसका संपूर्ण अधिकार भी नहीं था, फिर उसे शास्त्रीय काव्य भी नहीं कह सकते क्योंकि इसके पहले और इस युगमें भी संस्कृतमें अलंकार-शास्त्रको लेकर जैसी सूक्ष्म विवेचना हो रही थी उसकी कुछ भी झलक इसमें नहीं पाई जाती । शास्त्रीय विवेचना तो बहुत कम