पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१३३

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रीति-काव्य ११३ और जब तक सहृदयता जीती रहेगी तब तक बनी रहेगी। हालकी सत्तसईमें जीवनकी छोटी मोटी घटनाओंके साथ एक ऐसा निकट संबंध पाया जाता है जो इसके पूर्ववर्ती संस्कृत साहित्यमें बहुत कम मिलता है। प्रेम और करुणाके भाव, प्रेमिकोंकी रसमयी क्रीड़ायें और उनका घात-प्रतिघात इस ग्रंथम अतिशय जीवित रसमें प्रस्फुटित हुआ है । अहीर और अहीरिनोंकी प्रेम-गाथायें, ग्राम-वधूटियों की शृंगार-चेष्टायें, चक्की पीसती हुई या पौधोंको सींचती हुई सुन्दरियोंके मर्मस्पर्शी चित्र, विभिन्न ऋतुओंका भावोत्तेजन आदि बातें इतनी जीवित, इतनी सरस और इतनी हृदयस्पर्शी हैं कि पाठक जरबस इस सरस कान्यकी ओर आकृष्ट होता है। भारतीय काव्यका आलोचक इस नई भावधाराको भुला नहीं सकता। यहाँ वह एक अभिनव जगत्में पदार्पण करता है जहाँ आध्यात्मिकताका झमेला नहीं है, कुश और वेदिकाका नाम नहीं सुनाई देता, स्वर्ग और अपवर्गकी परवा नहीं की जाती, इतिहास और पुराणकी दुहाई नहीं दी जाती और उन सब बातोंको भुला दिया जाता है जिसे पूर्ववर्ती साहित्यम महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। फिर भी यह समझना भूल है कि हालकी सत्तसई लोक-साहित्य है। उसका स्पिरिट नया है पर भाषागत और भावगत वह सतर्कता इसमें भी है जो संस्कृत कविताकी जान है। इस नवीनताका संबंध जरूर किसी लोक-साहित्यसे रहा होगा, पर स्वयं यह 'सत्तसई' लोक- साहित्य नहीं थी । इस नई धाराका पूर्ण विकास हिन्दी साहित्यमें हुआ है, इसीलिए इसके विषय में कुछ अधिक विस्तारपूर्वक आलोचना करनेका यहाँ संकल्प किया गया है। हणोंके साथ ही आभीरगण भी इस देश में आये थे। इनका परिचय भारत- वासियोंको पहलेसे ही था । हूणों की तरह ये लूटपाट करके चलते नहीं बने, बल्कि यहीं बस गये और आगे चल कर बड़े बड़े राज्य स्थापनमें समर्थ हो सके। इनकी सरलता, वीरता और सौम्य प्रकृति शीघ्र ही भारतीय साहित्यको प्रभावित करनेमें समर्थ हुई। शुरू-शुरूमें इन्हें भी हूणोंकी तरह अत्याचारी समझा गया था पर बहुत शीघ्र ही भारतवासियोंने इनके प्रति अपनी धारणा बदल ली। इन आभीरोंका धर्म-मत भागवत धर्मके साथ मिल कर एक अभिनव वैष्णव- मतवादके प्रचारका कारण हुआ। अपभ्रंशके प्रसंगमें बताया गया है कि किस प्रकार इन्होंने भाषा और साहित्यको प्रभावित किया था । बहुतसे पंडितोकर विश्वास है कि प्राकृत और उससे होकर संस्कृतमें जो यह ऐहिकता-परक सरस