पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१३१

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__ रीति-काव्य हमने पहले ही देखा है कि हिन्दी साहित्यमें दो भिन्न प्रकृतिके आयोंने ग्रंथ लिखे हैं। पूर्वी आर्य अधिक भावप्रवण, आध्यात्मिकतावादी और रूदि-मुक्त थे और पश्चिमी या मध्यदेशीय आर्य अपेक्षाकृत अधिक रूढ़ि-रूढ़, परम्पराके पक्षपाती, शास्त्र-प्रवण और स्वर्गवादी थे। पूर्वी आर्यों में ही उपनिषदोंकी ज्ञान-चर्चा, बौद्ध और योगमार्गका प्रचार और आध्यात्मि- कता-स्वरसित भावप्रवण गीति-काव्यका विकास हुआ है। ये अवघसे लेकर आसाम तक फैले हुए थे । मध्यदेशीय आर्योंमें पौराणिक भाव-धाराका विकास, धर्मशास्त्र और निबंध ग्रंथोंकी प्रतिष्ठा, कर्मकाण्डका प्रचार तथा स्वर्ग अपवर्गकी प्राप्तिका विश्वास अधिक था। तूरानियन आक्रमणके पूर्ववती भारतीय साहित्य में इन दो जातियों की रचनाओंका ही समावेश है अर्थात् या तो उसमें आध्यात्मिकताप्रवण ग्रन्थों (जैसे उपनिषद, बौद्ध ग्रन्थ, जैनग्रंथ, दर्शन आदि ) का अस्तित्व है या परम्परापोषक कर्मकाण्डप्रवण शास्त्रोंका ( जैसे ब्राह्मण ग्रन्थ, औत और गृह्यसूत्र, प्राचीन स्मृति या इतिहास -पुराण आदिका ) आधिक्य है। ये दो जातिकी रचनायें दो प्रदेशों में हुई थीं। पहली अधिकतर अयोध्या, काशी, मगध आदिमें और दूसरी कान्यकुब्ज आदि मध्य-देशमें । सन् ईसवी के बाद एक तीसरी वस्तुका अचानक आविर्भाव होता . है। यह अध्यात्मवादी या मोक्षकामी रचनायें भी नहीं हैं और कर्मकण्डवादी था स्वर्गकामी भी नहीं हैं। इनमें ऐहिकतामूलक सरस कवित्व है। ये उत्त जातिकी रचनायें हैं जिसे अंग्रेजीमें 'सेक्यूलर कविता कहते हैं। इसके पूर्व जिन दो प्रकारकी रचनाओंकी चर्चा है उससे इनमें विशेष अन्तर है। ये पहली रचनाओंकी भाँति धारावाहिक रूपमें नहीं लिखी जाती थीं और किसी