पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१२९

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भक्ति-काल के प्रमुख कवियोंका व्यक्तित्व १०९, उपासना-पद्धतिके संसर्गमें आ चुके थे, फिर भी उनका मत अधिकतर हिन्दू भावापन्न था । कबीरके समान मस्तमौला न होनेके कारण के प्रेमके वियोग और संयोगके रूपकोंमें वैसी मस्ती तो नहीं ला सके हैं पर स्वभावतः सरल और निरीह होनेके कारण ज्यादा सहज और पुरअसर बना सके हैं। कबीरका स्वभाव एक तरहके तेजसे दृढ था पर दादूका स्वभाव- नम्रतासे मुलायम | कबीरके लिए उनका स्वभाव बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ क्योंकि उन्हें अपने रास्तेके बहुतसे झाड़झंखाड़ साफ करने थे। दादको मैदान बहुत कुछ साफ मिला था और इसमें उनके मीठे स्वभावने आश्चर्यजनक असर पैदा किया। यही कारण है कि दादूको कबीरकी अपेक्षा अधिक शिष्य और सम्मानदाता मिले। पर जीवनम कहीं भी दाडू कबीरके महत्त्वको न भूल सके और पद पदपर कत्रीरका उदाहरण देकर साधना-पद्धतिका निर्देश करते रहे। सुन्दरदास दाद के शिष्यों में सुन्दरदास सर्वाधिक शास्त्रीयज्ञान-सम्पन्न महात्मा थे। बहुत छोटी उमरमें उन्होंने दाइका शिष्यत्व ग्रहण किया था। बादमें काशीमें आकर बहुत दीध कालतक शास्त्राभ्यास किया था। इसका परिणाम यह हुआ था क उनकी कविताके बाह्य उपकरण तो शास्त्रीय दृष्टिले कथंचित् निर्दोष हो सके पर वक्तव्य-विषयका स्वाभाविक वेग, जो इस जातिके सन्तोंकी सबसे बड़ी शेषता है, कम हो गया । विषय अधिकांशमें संस्कृत ग्रंथोंसे संगृहीत तत्त्ववाद है जो हिन्दी-कवितामें नयी चीज होनेपर भी शास्त्रीय ज्ञान रखनेवाले सहृदयों के लिए विशेष आकर्षक नहीं है। छत्र बंध आदि प्रहेलिकाओंसे भी उन्होंने अपने कान्यको सजानेका प्रयास किया है। असल में सुन्दरदास संतोंमें अपने बाह्य उप- करणों के कारण विशेष स्थानके अधिकारी हो सके हैं । फिर भी इस विषयमें तो कोई सन्देह नहीं कि शास्त्रीय ढंगके वे एकमात्र निर्गुणिया कवि हैं। सुन्दरदासका अनुभव विस्तृत था। देश देशान्तर घूमा हुआ था। जब कभी वेदान्तका तत्त्वज्ञान छोड़कर ये अन्य विषयोंपर लिखते थे तब निःसन्देह रचना उत्तम कोटिकी होती थी। कुछ लोगोंका अनुमान है कि सुन्दरदास एक मात्र ऐसे निगुणिया साधक थे जिन्होंने, सुशिक्षित होने के कारण, लोक-धर्मकी उपेक्षा नहीं की है। लेकिन यह भ्रम है। कबीर, दाद आदि सन्तोंने पतिव्रताके अंगों में