पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१२८

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हिन्दी साहित्यकी भूमिका आघात करते समय दादू कभी उग्र नहीं होते हैं अपनी बात कहते समय वे यहत नम्र और प्रीत दिखते हैं। अपने जीवन कालमें ही वे इतने प्रख्यात हए थे कि सम्राट अकबरने उन्हें सीकरीमें बुलाकर चालीस दिन तक निरन्तर सत्संग किया था, फिर भी दादूके पदोंमें अभिमानका भाव बिलकुल नहीं है। उन्होंने बराबर इस बातपर जोर दिया है कि भक्त होनेके लिए नम्र शीलवान. अफलाकांक्षी और वीर होना चाहिए । कायरता उनके निकट साधनाकी सबसे मड़ी शत्रु है। वही साधक हो सकता है जो वीर हो, सिर उतार कर रख सके। कबीर (क-बीर) अपना सिर काट कर (क अक्षर छोड़कर) ही बीर हो सके ये। जो साइसके साथ मिथ्याचारका विरोध नहीं कर सकता वह वीर भी नहीं, वह वीर साधक भी नहीं । दादूके इस कथनका बेढंगा अर्थ करके बादके उनके शिष्योंका एक दल (नागा) केवल लड़ाकू ही रह गया। कबीरकी भाँति दादूने भी रूपकों का कहीं कहीं आश्रय लिया है, पर अधिक नहीं; अधिकांशमें उनकी उक्तियाँ सीधी और सहज ही समझमें आ जाने लायक होती हैं। इनके पदोंमें जहाँ निर्गुण निराकार निरंजनको व्यक्तिगत भगवान के रूपमें उपलब्ध किया गया है वहाँ वे कवित्वके उत्तम उदाहरण हो गये हैं। ऐसी अवस्था प्रेमका इतना सुन्दर चित्र उपस्थित किया गया है कि बरबस सूफी भावापन कवियों की याद आ जाती है । सूफियोंकी भाँति इन्होंने भी प्रेमको ही भगवान्का रूप, नाम और जाति बताया है। विरहके पदों में सीमका असीमसे मिलनके लिए तड़पना सहृदयको मर्माहत किये बिना नहीं रह सकता। भाषा इनकी यद्यपि पश्चिमी राजस्थानीसे मिली हुई परिमार्जित हिन्दी है' तथापि उसमें गजबका जोर है। स्थान स्थानपर प्रकृतिका जो वर्णन उन्होंने किया है वह देखने ही योग्य है। भाषा में किसी प्रकारका काव्य-गुण आरोप नहीं किया गया, छन्दोंका नियम प्रायः भंग होता रहता है, फिर भी अपने - स्वाभाविक अंगके कारण वह अत्यन्त प्रभावजनक हुई है। कबीरकी भाँति दादूदयाल भी जिन पाठकोंको उद्देश्य करके लिखते हैं वे साधारण कोटिके अशिक्षित आदमी हैं। उनके योग्य भाषा लिखने में दादको स्वभावतः ही सफलता मिली है। क्योंकि वे स्वयं भी कोई पंडित नहीं थे और जो कुछ कहते थे, अनुभवके बल्पर कहते थे। इनके पदोमें मुसलमानी साधनाके शब्द भी अधिक प्रयुक्त हुए हैं। वे स्वयं जन्मसे मुसलमान थे और मुस्लिम