पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१२७

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भक्ति-कालके प्रमुख कवियोंका ब्यक्तित्व - - । नदी पहाडको देखकर तन-मन विसार देता है, वह तुलसीदासके काव्यका लक्ष्यीभूत श्रोता नहीं है। तुलसीदास प्रकृत्या भावुकताको पसंद नहीं करते थे। एक ही जगह उनकी भावुकता 'पुलक-गाट' और 'लोचन-सजल' के रूपमें प्रकट होती है और वह भगवान्के 'करुणायतन' या 'मोहन-मयन' रूपको देखकर । इससे भी अधिक अजीब बात यह है कि उनकी उपमाओं, रूपकों और उत्प्रेक्षाओंमें कहीं कहीं काव्य-गत रूड़ियोंका बुरी तरह पालन किया गया है। उनके जैसे प्रतिभाशाली कविके लिए, जो इच्छा करते ही नई नई उपमाओं और उत्प्रेक्षाओंका ठाठ लगा सकता था, जो इस गुण में अतुलनीय था, यह बात एक अजीब-सी लगती हैं। शायद इस बातका भी समाधान उनकी समन्वयास्मिका प्रतिभाके द्वारा ही किया जा सकता है जो नवीनताके साथ सदा प्राचीनताका सामंजस्य-विधान करती थी। तुलसीदास कवि थे, भक्त थे, पंडित-सुधारक थे, लोकनायक थे और भविष्यके स्वष्टा थे। इन रूपोंमें उनका कोई भी रूप किसीसे घटकर नहीं था। यही कारण था कि उन्होंने सब ओरसे समता ( Balance) की रक्षा करते हए एक अद्वितीय कान्यकी सृष्टि की जो अब तक उत्तर भारतका मार्गदर्शक रहा है और उस दिन भी रहेगा जिस दिन नवीन भारतका जन्म हो गया होगा। दादूदयाल दाद तुलसीदासके समकालीन थे। वे कबीरदासके मार्गके अनुगामी थे। उनकी उक्तियोंमें बहुत कुछ कबीरदासकी छाया है, फिर भी वे वही नहीं थे. जो कबीरदास थे। समाजके निचले स्तरसे उनका भी आविर्भाव हुआ था, जन्मगत अवहेलनाको लेकर इनका भी विकास हुआ था, पर उस युग तुक. कबीरका प्रवर्तित निर्गुणमतवाद काफी लोकप्रिय हो गया था। नीच कही जानेवाली जातियोंमें उत्पन्न महापुरुषोंने अपनी प्रतिभा और भगवन्निष्ठाके: बलपर समाजके विरोधका भाव कम कर दिया था। दादूने शायद इसीलिए परम्परा- समागत उच्च-नीच विधानके लिए उत्तरदायी समझी जानेवाली जातियों पर उस तीव्रताके साथ आक्रमण नहीं किया जिसके साथ कबीरने किया था। इसके सिवा" उनके स्वभावमें भी कबीरके मस्तानेपनके बदले विनय-मिश्रित मधुरता अधिक थी। सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक रूढ़ियों और साधना-सम्बन्धी मिथ्याचारोंपरः