पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१२६

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१०६ - हिन्दी साहित्यकी भूमिका चरित्र-चित्रणमें तुलसीदास अतुलनीय हैं। उनके सभी पात्र हाड़-मांसके बने हमारे ही जैसे जीव हैं। उनमें जो अलौकिकता है वह भी मधुर और समझमें आने लायक है। उनके पात्रोंके प्रत्येक आचरणमें कोई न कोई विशेष लक्ष्य होता है। मानव-जीकनके किसी न किसी अंगपर उनसे प्रकाश पड़ता है, या किसी न किसी सामाजिक या वैयक्तिक कुरीतिकी तीव्र आलोचना भ्यक्त होती है या मानव-मानवमें सद्भावनाकी पुष्टिकी ओर इशारा रहता है। लीलाके लिए लीला-गान उन्होंने कहीं नहीं किया । वे आदर्शवादी थे और अपने कान्यसे भावी समाजकी सृष्टि कर रहे थे। वे उस देशमें पैदा हुए थे जहाँ कल्पना की जा सकती है कि रामके जन्मके साठ हजार वर्ष पहले रामायण काव्य लिखा गया अर्थात् जहाँ कवि भविष्यका द्रष्टा और स्रष्टा समझा जाता है। तुलसीदास ऐसे ही भविष्य-साधा थे। आज तीन सौ वर्ष बाद इस विषय में कोई संदेह नहीं रह सकता कि उन्होंने भावी समाजकी सृष्टि सचमुच की थी। आजका उत्तर-भारत तुलसीदासका रचा हुआ है। वही इसके मेरु-दंड हैं। भाषाको दृष्टिसे भी तुलसीदासकी तुलना हिन्दीके किसी अन्य कबिसे नहीं हो सकती। जैसा कि पहले ही बताया गया है, उनकी भाषामें भी एक समन्वयकी वेष्टा है तुलसीदास की भाषा जितनी ही लौकिक है उतनी ही शास्त्रीय । उसमें संस्कृतका मिश्रण बड़ी चतुरताके साथ किया गया है। जहाँ जैसा विषय होता है, भाषा अपने आप उसके अनुकूल हो जाती है। तुलसीदासके पहले किसीने इतनी मार्जित भाषाका उपयोग नहीं किया था। कान्योपयोगी भाषा लिखनमें तो तुलसीदास कमाल करते हैं। उनकी विनय पत्रिकामें भाषाका जैसा जोरदार प्रवाह है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है । जहाँ भाषा साधारण और लौकिक होती है वहाँ तुलसीदासकी उक्तियाँ तीरकी तरह चुभ जाती हैं और जहाँ शास्त्रीय और गम्भीर होती हैं और बहाँ पाठकका मन चीलकी तरह मैंडरा कर प्रतिपाद्या सिद्धान्तको ग्रहण कर उड़ जाता है। मानव-प्रकृतिका ज्ञान तुलसीदाससे अधिक उस युगमें किसीको नहीं था। पर यह एक आश्चर्यकी बात है कि उन्होंने विश्व-प्रकृतिको अपने काव्यमें कोई स्थान नहीं दिया। इसमें संन्देह नहीं कि जहाँ कहीं उन्होंने थोड़ी-सी चर्चा की है वहीं उसमें कमाल किया है, पर असलमें वे इससे उदासीन ही रहे। जो भावुक सहृदय पद-पदपर फूल-पत्तियोंको देखकर मुग्ध हो जाता है,