पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१२५

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भक्ति-कालके प्रमुख कवियों का व्यक्तित्व - देते हैं। कथामें कहीं किसी भक्तसे भगवानकी भेट हो गई तो चट उसने बरदानमें माँगा कि हे राम, तुम्हारा यह सगुण रूप ही मेरे मन में बसे, निशुण नहीं। इसी तरह उच्च वर्णके होनेके कारण स्वभावतः ही उस युगको तथाकथित 'वर्णाधौर की बढ़ बढ़ कर की हुई बातें उन्हें बुरी लगती थीं पर कथा-प्रसंगमें सर्वत्र उनकी महिमा गाई है । हाँ, अवश्य ही इस बातके लिए उनम भक्तिका होना आवश्यक माना गया है। इस समस्याका उन्होंने यही समन्वय किया है कि अगर छोटी जातिका आदमी भक्त हो तो वह मुहूर्त-मरमें ऊँची जातिके भक्तोंसे ऊपर उठ जाता है, 'भरत-सम भाई.. हो जाता है। उनके राम अधम-उधारन है जो इठपूर्वक अधमोंका उद्धार करते हैं। यह ध्यान देनेकी बात है कि तुलसीदासने रूपको अपेक्षा नामको श्रेष्ठ बताया है यहाँ तक कि 'ब्रह्म-रामते नाम बड़ है। अर्थात् निर्गुण भारसे भजन किया गया हो या सगुण भावसे, नामकी महिमामें कोई सन्देह नहीं । इस सिद्धान्तके द्वारा उन्होंने सहज ही अपने विरुद्ध-बादियों को भी अपनी श्रेणी में ले लिया है। समन्वयका मतलब है कुछ मुकना, कुछ दूसरोंको झुकनेके लिए बाध्य करना । तुलसीदासको ऐसा करना पड़ा है। यह करनेके लिए जिस असामान्य दक्षताकी जरूरत थी वह उनमें थी। फिर भी झुकना झुकना ही है। यही कारण है कि राम-चरित-मानसके कथा-कान्यकी दृष्टिसे अनुपमेय होनेभर भी उसके प्रवाहमें बाधा पड़ी है । अगर वह विशुद्ध कविताकी दृष्टिसे लिखा जाता तो कुछ और ही हुआ होता । यहाँ दार्शनिक मतकी विवेचना है तो वहाँ भक्तितत्त्वकी व्याख्या। फिर भी अपनी असामान्य दक्षताके कारण नुलसी- दासने इस बाधाको यथा-संभव कम किया है । अपने प्रयत्नमें वे इतने अधिक सफल हुए हैं कि भावुक समालोचकको उसमें कोई दोए ही नहीं दिखाई देता। कथाका झुकाव इतनी मार्मिकताके साथ पहचाना गया है कि यह बात आदमी प्राय: भूल जाता है कि रामचरितमानसका लक्ष्य केवल कथा ही नहीं और कुछ भी है। शुष्क तत्वज्ञान तुलसीदासको कभी प्रिय नहीं हुआ, जब कभी उसकी चर्चा के करते हैं तो कविकी भाषामें । उपमाओं और रूपकों के प्रयोगसे विषय अत्यन्त साफ हो जाता है और जहाँ कविता करनके लिए तुलसीदास कविका भाषाका प्रयोग करते हैं, वहा के अद्वितीय नजर आते हैं।