भक्ति-कालके कवियोंका व्यक्तित्व माँगा तो वे मूर्छित होकर गिर पड़ीं । प्रेमका वही रूप जिसने संयोगमें कभी विरहाशंकाका अनुमान नहीं किया, वियोगमें इस मूर्तिको धारण कर सकता है। असलमें सूरदासकी राधिका शुरूसे आखिर तक सरल बालिका हैं। उनके प्रेममें चंडीदासकी राधाकी तरह पद पद पर सास-ननंद का डर भी नहीं है और विद्या- पतिकी किशोरो राधिकाके समान रुदनमें हास और हासमै रुदनकी चातुरी भी नहीं है। इस प्रेममें किसी प्रकारकी जटिलता नहीं है । घरमें, वन, वाट-: पर, कदम्ब-तले, हिंडोलेपन, जहाँ कहीं भी इसका प्रकाश हुआ है वहीं वह! अपने आपमें ही पूर्ण है, मानों वह किसीकी अपेक्षा नहीं रखता और न कोई उसकी खबर रखता है। सूरदास जब अपने विषयका वर्णन शुरू करते हैं तो मानों अलंकारशास्त्र । हाथ जोड़ कर उनके पीछे दौड़ा करता है । अमाओंकी बाढ़ आ जाती है, रूपकों की वर्षा होने लगती है। संगीतके प्रवाहमें कवि स्वयं बह जाता है । वह अपनेको भूल जाता है। काव्यमें इस तन्मयताके साथ शास्त्रीय पद्धतिका निर्वाह विरल है | पद-पद पर मिलनेवाले अलंकारों को देखकर भी कोई अनुमान नहीं कर सकता कि कवि जान-बूझकर अलंकारोंका उपयोग कर रहा है। पन्ने- पर पन्ने पढ़ते जाइए, केवल उपमाओं और रूपकोंकी घटा, अन्योक्तियों का ठाठ, लक्षणा और व्यंजनाका चमत्कार, यहाँ तक कि एक ही चीज दो दो चार चार दस दस वार तक दुहराई जा रही है, फिर भी स्वाभाविक और सहज प्रवाह कहीं भी आहत नहीं हुआ। जिसने सूरतागर नहीं पढ़ा उसे यह आत सुनकर कुछ अजीबसी लगेगी, शायद यह विश्वास ही न कर सके, पर बात सही है। काव्य-गुणोंकी इस विशाल वनस्थली में एक अपना सहज सौन्दर्य है ! वह उस रमणीय उद्यानके समान नहीं जिसका सौन्दर्य पद पद पर मालीके कृतित्वकी याद दिलाया करता है, बल्कि उस अकृत्रिम वन-भूभिकी भाँति है। जिसका रचयिता रचनामें ही घुल-मिल गया है।" सूरदास सुधारक नहीं थे, ज्ञान-मार्गी भी नहीं थे, किसीको कुछ सिखानेका भान उन्होंने कभी किया ही नहीं। ये कहीं भी किसी भी सम्प्रदाय, मतवाद या व्यक्तिविशेषके प्रति कटु नहीं हए । यह भी उनके सरल हृदयका ही निद- शंक है । लेकिन वे कबीरदासकी तरह ऐसे समाजसे नहीं आये थे जो पद-पदपर लांछित और अपमानित होता था और जहाँका गृहस्थ-जीवन वैराग्य-जीवनकी अपेक्षा ज्यादा कठोर और तपोमय था। सूरदास जिस समाजमें पले थे उसका
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