पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१२०

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१०६ हिन्दी साहित्यको भूमिका मिलन-लालसामें भरा रहता है। यशोदा कभी उस माताकी तरह साश्रु नयनों से देवलाओंकी ओर नहीं ताकती जो सदा आँचले पसार कर बर माँगा करती है कि, हे भगवान्, जिसे पाया है वह खो न जाय । इसी प्रकार राधिकाने कृष्णके त्रजवासके समय कभी भी,---मनि और अभिमानके समय भी कातर नवनोंसे नहीं देखा । सूरदासका प्रेम संयोगके समय सोलह आना संयोग-मय है और । वियोगके समय सोलह आना वियोगमय हैं क्योंकि उनका हृदय बालकको थाः । जो अपने प्रिय क्षणिक वियोगमैं भी अधीर हो जाता है और क्षुणिक सम्म । लनमें ही सब कुछ भूलकर किलकारियाँ मारने लगता है । बाल-स्वभावके वर्णनमें सूरदास बेजोड़ समझे जाते हैं। वे स्वयं वयः प्राप्त । बालक थे। बाल-स्वभाव चित्रणमें वे एक तरहका अपनापा अनुभव करत जाने । पड़ते हैं और ठीक उसी प्रकार मातृ-हृदयको मर्म भी समझ लेते हैं। केवल । कृष्णका वाल-स्वभाव ही उन्होंने नहीं वर्णन किया, राधिकाकी बाल-केलिको भी : समान रूपसे आकर्षक बनाया है। सच पूछा जाय तो राधिका और कृष्णका सारा प्रेम-ब्यापार जो सूरसागर बात है, बालकका प्रेम-व्यापार है । वही चुहल, वही लापरवाही, वही मस्ती, वही मौज । न तो इस प्रेममें कोई पारि वारिक रस-बोध ही है और न आसुष्मिक संबंध ही । सारी लीला साफ, सीधी और सहन है । जैसा कि उनके गुरु वल्लभाचार्यंने बताया है 'लीलाका कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि लीला ही स्वयं प्रयोजन है । सूरदास इस लीलाको ही चरम साध्य मानते हैं। | प्रेमके इस साफ और मार्जित रूपका चित्रण भारतीय साहित्यमें किसी और कविने नहीं किया। यह सूरदासकी अपनी विशेषता है । वियोगके समय राधिकाका जो चित्र सूरदासने चित्रित किया है वह भी इस प्रेमके योग्य ही है। श्यामसुन्दरके मिलन-समयकी मुखरा, लीलावती, चंचला और हँसोड़ राधिका वियोगके समय मौन, शान्त और गम्भीर हो जाती है। उद्धवस अन्यान्य गोपियाँ काफी बकझक करती हैं पर राधिका वहाँ जाती भी नहीं । उद्धवने श्रीकृष्णसे । उनकी जिस मूर्तिका वर्णन किया है उससे पत्थर भी पिघल सकता है। उन्होंने राधिकाकी अाँखको निरन्तर बहते देखा था, कपोल-देश बारि-धारासे आई था, मुखमण्डल पीत हो गया था, आस्खें घुस गई थीं, शरीर कंकाल-शेष रह गया था। चे दरवाजेसे अागे न बढ़ सकी थीं ! प्रियके प्रिय वयस्यने जब सन्देश