पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/११९

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भक्ति-कालके प्रमुख कवियों का व्यक्तित्व मिलता है । भाषा सादी, सहज और प्रभाव होनेवाली है। पदोंमें कबीरकी-सी मुस्ती तो नहीं है, पर श्रद्धा और भगवान्के प्रति विश्वास प्रचुर मात्रा में है। कबीरदासकी भाँति नाना जातिके साधकोंसे गृहीत शास्त्रीय शब्दोंका अभिनव अर्थ इन्होंने नहीं किया और न रूपक अदि अलंकारोंका आश्रय लेकर पदको कवित्वपूर्ण बनाया है। साफ भाषाकै दमें उनके मनोभाव सुन्दर रूप प्रतिफलित हुए हैं। सूरदास -सूरदास कबीर की तरह समाजके निम्नतर स्तरमें नहीं पैदा हुए थे । वे ऊच जातिके,---शायद सारस्वत ब्राह्मण बाके रत्न थे । लेकिन उस युग सूरदा अपने इर्द-गिर्द जिस समाजको देखा था उसका कोई उच्च आद नहीं था । लोग खाते-पीते थे, रोगी या निर होते थे, और चार दिनतक हँस या रोकर चल बसते थे। जो धार्मिक प्रवृत्तिके थे ३ दस-बीस मन्दिर बनवा देते थे, यज्ञ-याग करके हजार पाँच सौ ब्राह्मणोके भोजन करा देते थे । ऊँचे बांके लोग अपनी झूठी शानमें मस्त रहते थे। उनका कर्तव्य था विलासिता । समाजको इसी पतित अवस्थाका वर्णन सूरदासने बड़ी जोरदार भाषामें किया है ? सम्भलित परिवार-प्रथा वर्तमान थी, घरों में झगड़े सदा होते रहते थे। जो जब तक कमा सकता था वह तबतक चैन करता था; फिर वृद्ध और शिथिलेन्दिय होनेपर उसीके लड़के-वाले उसका निरादर करने लगते थे। इस परिस्थितिमें विकसित भावप्रवण कविके चित्तपर इस समाजके प्रति विरक्ति स्वाभाविक है । सूरदास इस विरक्तिको लेकर बड़े हुए थे। वल्लभाचार्य संमें आनेके पहले उनके अन्दर इस विरक्ति प्रधानता थी। पुर वे बालकको हृदय लेकर पैदा हुए थे, और अन्त तक बालकका हृदय लिये हुए ही संसार-यात्रा निबाई गये। वल्लभाचार्य संसर्गमें आनेपर उन्होंने ला-गान करनेकी दीक्षा ली और सरल हृदय चालककी भाँति इस नई चीजको पाकर पुरानीका मोह एकदम त्याग दिया । | लीला-शानमें भी सूरदासका प्रिय विषय था प्रेम । माताका प्रेम, पुत्रका प्रेम, गोप-गोपियोंका प्रेम, प्रिय और प्रियाका ओम, पति और पत्नीका प्रेम,---इन बातोंसे ही सूरसागर भरा है। सुरदासके प्रेममें उस प्रकार प्रेमकी गंध भी नहीं है जो प्रियकी संयोगावस्थामें उसकी विरहृशंकासे उत्कंठित और वियोगावस्था | . . १ चौरासी वैष्णवोंकी बात ।