पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/११८

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नानक ये कबीरकी ही भाँति भगवानके निर्गुण रूपके उपासक थे। समाजके उ निचले स्तरसे उनका अगमन नहीं हुआ था जिससे कबीरकी । इसीलिए उनकी उक्तियोंमें कुत्रीरकी तरह तीब्रता नहीं है। फिर भी उन्होंने समाजमें प्रचलित भेदभावको बुरा समझा ! लेकिन कबीर और नानक्रकी इन बातोंमें फर्क है । कबीरकी दृष्टिभं भेद-भावका रहना इसलिए अन्यायमूलक नहीं था कि उसमें एक श्रेणी के मनुष्योंपर निर्दयताको व्यवहार हो रहा है और यइ मनुष्यका कर्तव्य होना चाहिए कि उन दलित मनुष्यों को भी अपनी बराबरीको समझे । वे स्वयं उस लांछनाको भोग चुके थे, इसलिए, उनकी उक्तियोंमें उस विधानके लिए जो लोग उत्तरदायी हैं, उनपर खुला आक्रमण किया गया है। पर नानककी साम्य भावना विचार-प्रसूत और करुणा-मूलक थी। उन्होंने जिस सिक्ख-सम्प्रदायका प्रवर्तन किया था, उसे बाद परिस्थिति में पड़कर शस्त्र-ग्रहण करना पड़ा था और इसीलिए हमारे सामने उस सम्प्रदायकी भक्त मूर्तिकी अपेक्षा वीरमूर्ति ही अधिक नजर आती है और इसके प्रवर्तकमें भी इम उसी रूद्रताका अनुमान करने लगते हैं। पर बात असल ऐसी नहीं है । नानककी भक्ति करुणा-भूलक थी । अपने शिष्य फरीदसे उन्होंने एक बार कहा था-फरीद, अगर तुम्हें कोई मार तो तुम उसकी पैर पकड़ो !' इस उपदेशमें नानकको असली स्वरूप निहित है। उनके भजनों में श्रद्धालु भावसे हरि-भजनका उपदेश है और साथ हा विषय-सुखस अपनेको दूर इटा लेने का आदेश है। | हिन्दीमें गुरु नानकने बहुत कम लिखा है ! उनकी अधिकांश उक्तियोमैं पंजाबीपन अधिक है। लेकिन नानक' नाम देकर अन्यान्य गुरुअोंने भी पद लिखे हैं। इन पदोंमंसे अधिकांशकी भाषा हिन्दी है। बहुत लोगोंने भ्रमवश इन सभी उक्तियोंको नानकी रचना समझ लिया है ।। नानककी रचनाओं में एक अत्यन्त अहंभाव-डीन निरीह भक्तका परिचय ।