पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/११७

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भक्ति-कालके प्रमुख कवियों का ब्यक्तित्व अवज्ञाकः अभव और साथ ही सरलता स्पष्ट मालूम होती है। उनकी सरल और स्पष्टवादितामें कभी कभी शास्त्र-पंथिबॉको अक्खड़ता मालूम होती है। क्योंकि यह समझ लिया जाता है कि वे एक मामूली जुलाहे थे और उनको के सब बातें कुइनेका हक नहीं था। | कबीर मस्तमौला थे। जो कुछ कहते थे, साफ कृइते थे। जब मौजमें आकर रूपक और अन्योक्तियोंपर उतर आते थे तब जो कुछ कहते थे वह' सनातन कृवित्वका शुभगार होता था। उनकी कवितासे भी सनातन सत्य बुर्वित नहीं हुआ। वे जो कुछ कहते थे अनुभवके आधारपर कहते थे । इसीलिए सभी रूपक सुलझे हुए और उक्तियाँ बेधनेवाली होती थी। उनके राम जब उनके प्रिय होते हैं तो भी उनकी असीम सत्ता भुला नहीं दी जाती । नौ खुले दरगजोंके घरमै बन्द दुलहिनके वियोगकी तड़प एक रहस्यमय प्रेम-लीला की ओर केत करती है जहाँ सीमा असमसे मिलने व्याकुल है और असीम सीमाको पाने के लिए चंचल । इसीलिए इस सारे विश्वका प्रकाश है ! अगर यह लीला न होती तो संसारमें कोई बस्तु ही न होती । हम अपने मुख-यंत्र आदि बंधन असीम स्वर-सन्तानको बाँधनेकी चेष्टा करके एक तरहका आनन्द पाते हैं और इस बैधनसे ही असम-स्वर-संतान,--अनाहत नादको अभास पाते हैं। वैसे ही सीमाके अन्यान्य उपकरण से इम असीमताको अन्दाजा लगाते हैं और प्रिय भी अपने इन्हीं सीमामय विकासे हमारे आनन्दका अनुभव करता है । कबीर के रूपकोंमें सदा इस महासत्यकी ओर संकेत होता रहता है ! उनके प्रेम और भक्तिमें वह गलश्रु भावुकता नहीं थी जो जरा-सी आँचसे ।। ही पिघल जाय । यह प्रेम ज्ञानद्वारा नीत और श्रद्धाद्वारा अनुगमित था । । वियोगकी बात भी वे उसी मौजसे कह सकते थे जिस तरह संयोगकी । उनका मन जिस प्रेमरूपी मदिरासे मतवाला था, वह ज्ञानके मडुवे और गुड़से बन थी, इसीलिए अन्धश्रद्धा, भावुकत और हिस्टीरिक प्रेमोन्मादकी उसमें एकान्त अभाव था । भक्तिके अतिरेकमें उन्होंने कभी अपनेको अति पतित नहीं समझा । सिरसे पैर तक वे मस्तमौल थे: बेपरवाह, दृढ़, उग्र । । तीन प्रकारकी बातें वे लिखते थे : ज्ञानी और साधकोंको लक्ष्य करके, जन, साधारणके लिए और अपनी मौजमें। तीनोंमें उन्हें अभूतपूर्व सफलता मिली है। ३ पढ़े-लिखे नहीं थे, छन्दशास्त्र और अलंकारके ज्ञान से भी बंचित थे। कवित करना उनका लक्ष्य नहीं था। फिर भी उनकी उक्तियों में कवित्वकी ऊँचीले ऊँचा