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| हिन्दी साहित्यकी भूमिका

: और भी के सिवा मुसलमान सूफियों को भी रास्ता था। लेकिन यह बात । समान्तरहसे असम्भव ही थी कि अपने जुलाहेपनके साथ बे ज्ञानी हो जायें।

सौभाग्यवश इस युगके महागुरु रामानन्दसे कबीरकी पहचान हो गई और जो बात असम्भव थी वह सम्भव हो गई। कबीरको वैराग्य नहीं लेना पड़ा पर वे * वैराग्यके ज्ञाता हो सके, उन्हें योग-मार्गका साघक नहीं बनना पड़ा पर वे उसका तब समझ सके। इस तरह कबीरमें एक ही साथ कई बातोंका योग हुआ । वे दरिद्र और दलित थे इसलिए अन्त तक वे इस श्रेणी के प्रति की गई उपेक्षाको भूल न सके । उनकी नस-नसमें इस अकारण दण्डके विरुद्ध विद्रोहका भाव भरा था। मैं मुसलमान थे अतएव सहज ही मुसलिम साधनाको ग्रहण भी करें सके और उनकी कमजोरियोंपर आघात भी कर सके। वे पंडित नहीं थे पर काशीनें नज़दीकसे रहकर पंडितों को देखनेका अवसर उन्हें मिली थी । इसका परिणाम यह हुआ कि वे और लोगों की भाँति अपनेको हल्का समझने की भावनाके शिकार न बने; क्योंकि उन्होंने अच्छी तरह देखा कि तथाकथित बड़े बड़े पंडित ठीक उसी प्रकारके इड़ि-मांसकी बुराइयों-भलाइयोंके बने हुए हैं। जिस प्रकारका एक साधारण जुलाहा । वे जमकर आधात कर सकते थे और फिर भी इस लापरवाही के साथ मानो उनपर कोई आधात कर ईं। नहीं सकता। दूसरोंकी कमजोरियों को दिखा सकते थे, और विश्वास कर सकते थे कि उनके अन्दर ऐसी कोई कमजोर है ही नहीं जिसपर दूसरा पक्ष कुछ कह सके । शास्त्रके दाँव-पेंचसे अनभिज्ञ थे, इसलिए पद पदपर दार्शनिककी भाँति ।" लगाकरे अपर पक्षकी सम्भावनाको कल्पना नहीं कर सकते थे। इसीलिए उनी। उक्तियाँ तीरकी भाँति सीधे हृदयमें चुभ जाती हैं। यह विश्वास उनमें इतनँ अधिक मात्रा था कि कभी कभी पंडितों को उसमें गर्वोक्तिकी गंध आती है। । उनमें युगप्रवर्तकको विश्वास था और लोकनायककी हमदर्दी । इसीलिए वे एक | नया युग उत्पन्न कर सके । अपने पदोंमें उन्होंने पंडितको संबोधन किया है। लेकिन उसमें चिढ़ यो : कटुता नहीं है, अपने प्रति एक विश्वास है। उन्होंने शेखको संबोधन किया है । और इस साहसके साथ गोया वह एक अदना आदमी है। उन्होंने अवधूतको । पुकारके कहा है और इस तरह कहा है मानो अवधूतको उनसे बहुत कुछ सीखना हैं। उन्होंने अपने रामको भी कुछ इसी से पुकारा है गया वे उनके । अपने अंग हों। इन सभी उक्तियों में उनका अपूर्व आत्मविश्वास. अपने प्रति