पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/११५

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भक्ति-कालके प्रमुख कवियोंका व्यक्तित्व कबीर कबीरदास ऐसे कइल जुन्न ग्रहण किया था जिसे समय भारतवर्षकी सांस्कृतिक अवस्था अत्यन्त उतार पर थी । वे एक ऐसे कुलमें उद्भूत हुए थे जो परम्परःसे ज्ञानार्जनके अयोग्य समझा जाता था ! बाहरके प्रलोभनते हो, श भीतरके आयातले, मुसलमानी शासनमें इस जातिको रजिधर्म ग्रहण करनेक सौभाग्य प्राप्त हुआ था। पर न तो इससे उसमें राजकीय परिमाका संचार ही हो पाया और न चीन हीनताले उद्धार ही । नाम-मत्रिके मुसलमान इस जुलाहे-जातिके रक्तमें प्राचीन हिन्दू-विश्वास पूर्ण मात्रामें वर्तमान था पर शास्त्रज्ञान प्राप्त करने का दरवाजा उनके लिए यहाँ भी रूद्ध ही था । ये गरीजी में जनमते थे, उसीमें पलले थे और उसमें मर जाया करते थे। लेकिन प्रतिभा किसी कुलविशेाका इन्तजार कहीं करता । कबीर के पूर्ववर्ती युगमें भी नीच समझी जानेवाली शास्त्र-ज्ञान-विवर्जित जातियोंमें प्रतिभाशाली पुरुष पैदा होते रहे और एक न एक प्रकारले समाजमें शीर्षस्थानपर अधिकार करते ही रहे। इस प्रकार के पुरुषों का एकमात्र द्वार था वैराग्य । आज साधुअोंकी जो समस्या भारतवर्षमें वर्तमान है उसके मूल वही व्यवस्था है जो करोड़ोंकी संख्या आदमियोंको अकारण नीच समझनेका विधान करती हैं। कबीरदास युग्में वैराग्यप्रधान साधुका जो दल था वह अधिकांशमैं बौद्ध-धर्मके परिवर्तित रूपक अनुगमन कर रहा था। इनमें सहयान, नाथपंथ, अवधूत, तंत्रवादी अादि थे । महायान बौद्ध-धर्मका दूरविष्ट प्रभाव देवदेवियोंके रूपमलित था । चौरासी सिद्धोमैंसे अनेक नीच समझी जानेवाली जातियों की देन थे। कबीरदासके लिए ज्ञान प्राप्त करनेका एकमात्र मा यही था कि वे इन्हीं किसी एक