पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/११२

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हिन्दी साहित्यकी भूमिका भक्त और भगवान्की सरह भक्ति भी अपरम्पार महिमामयी है ! दाददयालने कह से, कि जैसे राम अपार हैं, भक्ति भी उसी प्रकार अगाध है। सभी साधुन पुकार पुकारकर कहा है कि इन दोनों की कोई सीमा नहीं है। जिस प्रकार राम अविगत हैं, भक्ति भी उसी प्रकार अलेख्य है, दोनों की • कहीं सीमा नहीं हैं, यह चैध हजार मुँहसे कह रहे हैं। राम जैसे निपुण हैं, भक्ति भी वैसी ही निरञ्जन है, इन दोनों की कोई सीमा नहीं है, ऐसा संतोंने निश्चय किया है। जैसे पूर्ण राम हैं ठीक उसी प्रकार भक्ति भी पूर्ण है, इन। 51 दोनों की कोई सीमा नहीं है, ये दोनों दो चीजें भी नहीं हैं । । इस प्रकार { इस युगका साहित्य भक्ति, भक्त, भगवान् और गुरुकी महिमासे भरा पड़ा है ।। इस युगके सगुण और निर्गुण दोनों प्रकारके मतके सुन्तोंने नामकी महिमा खून गाई है । नाम-माहात्म्य भागवत आदि प्रायः सभी पुराण में पाया जाता है, पर मुष्य-युगके भक्तों में इसकी चरम विकास हुआ है। तुलसीदासने कहा है कि । अझ और राम अर्थात् निर्विशेष चिन्मयसत्ता और अखण्डानन्त प्रेम स्वरूप भगवान् इन दोनों में नाम बड़ा है। रामचरितमानसके आरम्भमें ही विस्तारपूर्वक बताया गया है कि रामकी अपेक्षा रामका नाम अधिक उपकारी है। कबीरने भी कहा है कि मैं भी कह रहा हूँ, ब्रह्मा और महेशने भी कहा है कि राम-नाम ही सारतत्त्व है। भक्ति और भजन जो कुछ भी है वह रामनाम ही है; और सब दुःख है । १ जैसा राम अपार है तैसी भगति अपार । इन दोनॉकी मित नहीं सकल पुकारं साधं ।। जैसा बिगत रस है तैसी भगति अलेख । इन दोनों र्मित नहीं सहसमुखी कहै सेख । जैसा निरगुन राम है मगति निरंजन जान । इन दोनोंकी मित नहीं संत कहूँ परवान ।। जैसा पूरा राम है पूरन भगति समान । इन दोनों की मित नहीं दादू नाही अन । ३ ब्रह्म-मतें नाम बड़े बरदायक वरदानि ।। रामचरित सत कोटि महुँ लिय महेस जिय जानि ।।