पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१११

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मध्य-युगके सन्तक सामान्य विश्वास ९१ था, मैं तुम्हें उसी प्रेमीको लौटा देना चाहता हूँ ! रुक्मिणी रोने लगीं । ठीक इसी प्रकारका मजाक एक बार भगवान्ने राधिकासे किया । काने मज़ा कका जवाब दूसरे मज़ाकसे दिया । इस कथाका प्रयोजन प्रेमका तारतम्य दिखाना है । रुक्मिणी प्रेमको दुनिया सम्पूर्ण रूपसे न आ सकी थीं, उनके अन्दर ऐश्वर्य-बुद्धि अर्थात् पूज्य-पूज्ञकृका, बड़े-छोटेक भाव वर्तमान था; पर राधिका सोलह आने प्रेममयी थी, वहाँ बड़े-छटेका सवाल ही नहीं था। अष्टछापके समी कवियोंमें इस बातका बहुत सुन्दर विकास हुआ था। | प्रेम ही परम पुरुषार्थ है। सूरदात कहते हैं कि प्रेम प्रेमसे ही होता है, प्रेमसे ही भवसागर पार किया जा सकता है; प्रेमके बन्धन ही सारा संसार बँधा है, एक प्रेमका निश्चय ही रसीली जीवन्मुक्ति है, प्रेमका निश्चय ही सत्य है जिससे गोपाल मिलते हैं। | दादू कहते हैं, “ प्रेम ही भगवान्की जाति हैं, प्रेम ही भगवान्की देह है ! प्रेम ही भगवान्की सत्ता है, प्रेम ही भगवान्का रंग । विरहको मार्ग खोजकर प्रेमका रास्ता पकड़ो, लौके रास्ते जाओ, दूसरे रास्ते पैर भी न रखना।' कबीरदास कहते हैं कि स्वामी और सेवक एकमल हैं, दोनों मन ही मन ( प्रेमसे ही ) मिलते हैं। वह चतुराईसे प्रसन्न नहीं होता, मनके भावले रीझता है ।' तुलसी दास कहते हैं कि भगवान् भक्तपर ऐसी प्रीति करते हैं कि. अपनी प्रभुता भूलकर भक्तके वश हो जाते हैं। यह सृटाकी रीति है । १ श्री मद्भागवत में यह कथा बहुत ही सुन्दर है | कुल्यमें प्रकाशित हो चुकी हैं । २ प्रेम प्रेमस होय प्रेमस पारहिं जैये ।। प्रेम बँध्यो संसार प्रेम परमारथ पैये | एकै निश्चय प्रेमको जोन्मुक्ति रसाल । संचो निश्चय प्रेमको जातै मिलें गोपाल ।। ३ इश्क अलकी जाति है इश्क अहका अंग। इश्क अहह औजूद है इश्क अलका रंग ।। वाट बिरह्कीसधि करि पंथ प्रेमका लेहु । ब्वके मारग जाइये दुसर पाँव न देहु । ४ ऐसी हरि करत दासपर प्रीति ।। निज प्रभुता बिसारि जनके बस होत, सदा यह रीति ।