पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१०८

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हिन्दी साहित्यकी भूमिका इसीलिए अक्तुकी परम साघुनु है भगवानके साथ लीला । भक्तों में अपनी उपासना-पद्धतिके अनुसार इस लीलाके.रूपमै भेद हो सकता है,अर्का -लक्ष्य यह लीला ही है। जो भक्त दास्य-मावसे भजन करता है वह भगवान्की अनन्त काल तक पद-सेवा करना चाहता हैं और जो मधुर भावसे भूजन करता है वह गोलोकमै अनवरत विहारकी कामना करता है । जो निर्गुण भावसे भजन करवा है वह भी भगवान्की चिन्मय सत्तामें विलीन हो जानेकी इच्छा नहीं रखता चल्कि अनन्त कालतक उसमें रमते रहनेकी लालसा करता है । इस प्रकार दादू मुगवान्के साथ नित्य लीलामें रत हैं। ‘प्रियसे रंग भरके खेलता हूँ, जहाँ रसीली वेणु बज रही है। अखण्ड सिंहासनपर प्रेम-न्याकुल स्वामी बैठे हैं और प्रेम-रसका पान करा रहे हैं। रंग भरके प्रियके साथ खेल रहा हूँ, यहाँ कभी वियोगकी चिंकी नहीं है। यह कुछ पूर्वका संयोग है कि आदिपुरुष अन्तरमें मिल गया है। रंग भरके प्रिय खेल रहा हूँ, यहाँ बारह मास वसन्त है। सेवकको सदा आनन्द है कि युगयुग वह कान्तको देखता है । कबीरदासजी कहते हैं कि * हाथ, मेरे वे दिन कब आयेंगे जब मैं अंग अंग लगाकर मिलूंगी, जिसके लिए मैंने यह देह धारण किया है । वह दिन कब आवेंगे जब तन, मन और प्राणोंमें प्रवेश करके तुम्हारे साथ सदा हिलमिलकर खेलँगी । हे समर्थ रामराय ! मेरी यह कामना परिपूर्ण करो।' यह इस युगकी तीसरी समानधर्मिता है। १ गभरि खेल पीबस तहँ बाजे बैनु रसात । अकल पाट करि बैठ्या स्वामी प्रेम पिलवै लाल । रंगभरि खेलौ पीबस कबहूँ न होइ वियोग । आदिपुरुष अंतर मिल्या कछु पूरबके योग ।। २१ गभरि खेलॅ पीवसों बारह मास बसन्त । सेबग सदा अनंद है जुग जुग देख कंत ।।---दादूदयाल ३ बै दिन आदेंगे माई ।। जा कारनि हम देह धरी है मिलिबौ अंगि लगाइ । हैं जानू जे हिलिमिलि खे तन मन प्रान समाइ ॥ या कामना करौ परिपूरन समरथ ही रामराई । कबीरग्रंथावली