पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१०७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

मध्ययुगके लल्तका सामान्य विश्वास अनुभव कर सकता है, इसीलिए भक्तकी सबसे बड़ी कामना यह है कि वह भगवान्का प्रेम प्राप्त करे । मोक्षको, अर्थात् भगवान्के एक अंशमें लीन हो जानको, वह कभी पसन्द नहीं करता } मोक्ष उसके मुतसे परम पुरुषार्थ नहीं हैं, प्रेम ही परपुरुषार्थ है-'प्रेमा पुमर्थे महान् वह दूसरी बड़ी बात है। जिसमें उस युग प्रायः सभी भक्त एकमत हैं । इसको वे नाना रूपमें कहते है । कोई कहता है-'हे भगवान् ! मुझे दर्शन दो, मुझे तुम्हारी मुक्ति नहीं चाहिए। है गोविन्द ! मुझे इद्धि सिद्धि नहीं चाहिए, मैं तुम्ही चाहता हूँ। है राम ! मैं योग नहीं चाहता, भोग भई चइता, मैं तुम्ही को चाइता हूँ ! हे देद ! मैं घर नहीं पता, वन नहीं माँगता, मैं तुम्को माँगता हूँ। मैं और कुछ नहीं माता, केवल दर्शन माँगता हूँ। कोई कहता है, न मुझे धर्म चाहिए, न अर्थ चाहिए, न काम चाहिए और न निर्वाण ही चाहिए। मैं यही वरदान माँगता हूँ कि जन्म-जन्म रबुपतिकी भक्ति मिले। कोई दूसरः नृताता है। किं । आठौं सिद्धि और नव निधिको सुख वह नन्दकी गाय चराकर ब्रिसार सकता है, करोड़ों कलधौतके धाम करीलके कुंजोंपर कुर्बान कर सकता है, कामरी और लकुटिया उसे मिल जाय तो त्रैलोक्यका राज्य वार सकता है।' १ दरसन दे दरसन दैहीं तो तेरी मुकति न माँगों के। सिधि ना माँ रिधि ना माँग तुम्ही माँग गोविंदा । ओग न माँग भोग न नौलो हुम्ही माँगा रामजी । घर नहिंमाँ बन नहिं माँ तुम्हीं माँन्द देवजी ! | ‘दादः तुम्ह बिन और न जानै दरसन माँगा देहु जी । २ अरथ न धरम न काम-रुचि, गति न चहौं निरबान ।। जनम जनम रघुपति-भगति, यह बरदान न आन । —तुलसीदास ३ या लकुटी अरु कामरियापर राज तिहूँ पुरको तजि डाएँ । आठहु सिद्धि नौ निधिक सुख नंदकी धनु चराई बिसारों ।। आँखिनस रसखान कबै ब्रज बन बाग तड़ाग निहारौं । कोटिन हूँ कलधौतके धाम करके कुंजन ऊपर बारौ ॥रसखान