पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१०६

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हिन्दी साहित्यकी भूमिका , आया है; हे अन्तर्यामी, तुम अगर छिपे रहोगे तो मैं कैसे बच सकता हूँ? तुम स्वयं छिप रहे हो, मेरी रात कैसे कटेगी ! तुम्हारे दर्शनके लिए जी तड़प रही है'1' सूरदास कह सकते हैं--- तुम्हारी भक्ति ही मेरे प्राण हैं, अगर यही छूट गई तो भक्त जियेगा कैसे ? पानी बिना प्राण कहीं रह सकता है?' । लोग कबीर आदि भक्तोंको ज्ञानाश्रयी, 5 निर्गुनिया' आदि कहते हैं। वे प्रायः भूल जाते हैं कि निगुनिया होकर भी कबीरदास भक्त हैं और उनके | * राम' वेदान्तियोंके ब्रह्मकी अपेक्षा भक्तोंके भगवान् अधिक हैं । अर्थात् केवल सत्ता केवल ज्ञानमयतासे भिन्न व्यक्तिगत ईश्वर हैं। इसीलिए कबीरदास अादि भक्त ज्ञानी होते हुए भी प्रेममें विश्वास रखते हैं। | उस युगके इस रहस्यको समझनेके लिए सगुण-भावसे उपासना करनेवाले. भक्तोंकी कुछ बातें समझनी पड़ेगी भगवतमें एक श्लोक आता है जिसमें बताया गया है कि अखण्डानन्दस्वरूप तेंवके तीन रूप हैं---ब्रह्म, परमात्मा और भगवान् । जो ज्ञानाश्रयी भक्त भगवान्के केवल चिन्मय रूपका साक्षात्कार करते. हैं वे उसके एक अंशमात्रको जानते हैं और अपने ज्ञानके द्वारा उस चिन्मयः अंशमैं लीन होने का दावा करते हैं । यही केवलज्ञानस्वरूप ब्रह्म कहा जाती है। इस मतमें ज्ञान निराकार होता है और ज्ञाता और शेयके विभागसे रहित होता है। दूसरा स्वरूप परमात्माका है। इस रूपके उपासकोंमें शक्ति और शक्तिमान्का भेद ज्ञात रहता है। यह स्वरूप योगियोंका आराध्य है। किन्तु भक्तों के भगवान् परिपूर्ण सर्वशक्तिविशिष्ट हैं। भक्त ही भगवान्की सारी शक्तिके रसका १ तुम बिन ब्याकुल केसदा, नैन रहे जल पूरि। अन्तरजाम छिप रहे, हम क्यों जीवें दूरि ॥ आप अपरछन होइ रहे, हम क्यों रैन दिहाइ । दाढू दरसनकारने तलफ तकफि जिग्न जाइ । २ तुम्हारी भक्ति हमारे प्रान ।। छूटे गये कैसे जन जीवत या पानी बिन प्रान । ३ वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ञानमढ़यन् । ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्दयते ।। । । ---- ० ३ । २।११ इसपर श्रीजीवगोस्वामीका क्रम-सन्दर्भ और बल्लभाचार्यकी सुबोधिनी देखिए।