पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१०५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

मध्य-युगके सन्तोंका सामान्य विश्वास मध्ययुगके सन्तोंमें भूत, साधना-पद्धति और आचार-विचारसम्बन्धी नानामतभेदोंके साथ मी एक साम्य है। इसी सायके कारण मुध्य-युगका सारा भक्तिसाहित्य एक विशेष श्रेणीका साहित्य हो सका है। कुछ बातें ऐसी थीं जो प्राचीनतर साधकोंमें वर्तमान थीं और मध्य-बुके भी साधकों और सन्ताने उन्हें समान भावसे पाया था। सबसे पहली बात जो इस सम्पूर्ण साहित्यके मूलमें है, यह है कि भक्तका । भगवान्के साथ एक व्यक्तिगत सम्बन्ध हैं। भगवान् या ईश्वर इन भक्तोंकी है। इष्टिमें कोई शक्ति या सत्तामात्र नहीं है बल्कि एक सर्वशक्तिमान् व्यक्ति है जो कृपा कर सकता है, प्रेम कर सकता है, उद्धार कर सकता है, अवतार ले सकता है। निर्गुण मतके भी हों या सगुण मतके, भगवान्के साथ उन्होंने कोई न कोई अपना सम्बन्ध पाया है। निर्गुणमतवादियोंमें श्रेष्ठ कबीर कह सकते हैंभगवान् ! तु मेरी माँ है, मैं तेरा बालक हैं, मेरा अगुण क्यों नहीं बख्श देता है पुत्र तो बहुतसे अपराध करता है, किन्तु माँके मनमें वे बातें नहीं रहतीं । बालक अगर उसके केश हथिोंमें पकड़कर उसे मारे भी तो माता बुरा नहीं मानती । बालकके दुखी होनेपर वई दुखी होती हैं। इसी प्रकार दादू कहे। सकते हैं--- हे केशव ! तुम्हारे बिना मैं व्याकुल हूँ, मेरी आँखोंमें पानी भर १ हरि जननी, मैं बालक तेरा { हे न औगुन बगसहु मेरा । । सूत अपराध के दिन केते । जुननके चैत रहै न तेते हैं। कर गाह केस करे जो घादा । तऊ न देत उतरै माता ।। कहे कबीर एक बुद्धि बिचरी । दालक दुखी दुखी मता ॥ ५