पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१०४

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| हिन्दी साहित्यकी भूमिका भुक्तों के साथ इन भक्तोका इसी दृधि-विशेषके कारण बहुत अन्तर हो गया है। । मधुर भावसे भूजन करनेवाले भक्त के लिए उनकी लीलायें ही प्रधान मैतन्य हैं, उनकी अंगारन्चेष्टायें, उनकी विलास-लीलायें, उनकी प्रेम-गाथायें ही : रोय हैं; पर दास्य-भावते भजन करनेवालेके लिए ऐश्वर्य भाव बहुत जरूरी है। जब तक भगवान्के ऐश्वर्य रूपको वह सदा स्मरण नहीं करता रहता तब तक उसमें दैन्य आदि भाव तीव्र रूपमें नहीं प्रकट होते । यही कारण है कि हिन्दीका कृष्णपरक साहित्य ऐहिक लीलासे भरा हुआ और आमुष्मिक चिन्तासे इतना मुक्त है। - राम-साहित्यमें ऐश्वर्य-बोधकी प्रबळता होनेके कारण उसमें ऐहिक लीलाका प्राधान्य हो ही नहीं सकता । गोस्वामी तुलसीदासजीके राम-चरितमानसमें इसीलिए हर प्रसंगपर भगवान्के ऐश्वर्य-रूपका स्मरण करा दिया जाता है। इस ऐश्वर्वरूपका वर्णन करते समय तुलसीदास अघाते नहीं दिखते * । दास्य-भावसे भजन करनेवाले भक्तोंके इस विशेष दृष्टिकोणकी प्रशंसा न कर सकनेवाले आलोचकोंने कभी कभी रामायणकी थामें ऐश्वर्य-रूपके वर्णनके आधिक्यको कवित्वको परिपंथी बताया है और यह व्यबस्था दी है कि ऐसा करके तुलसीदास कवि-धर्मसे च्युत हुए हैं। ऐसे आलोचकोंको मधुर-भावके भक्तोंकी रचनाभ स्वभावतः ही कान्यकी परिपंथी वृत्तियाँ नहीं दिखनी चाहिए, पर वहाँ भी कभी कभी अनुचित अश्लीलता दिख जाती है। ये दोनों तथा-कथित दोष कान्यके परिपंथी था सहायक हों या न हों, दोनों प्रकारके भक्तों के विशेष दृष्टिकोणको निश्चित रूपसे प्रकट करते हैं।

  • जो गति जोग विराग जतन करि, नहिं पावहिं मुनि ज्ञानी ।।

सौ गति देत गधि सबरीकहूँ, प्रभु न अधिक जिय जानी ।। इत्यादि और ऐसे राम दीनहितकारी । अति कोमल करुनानिधान बिनु कारन परउपकारी । साधनहीन दीन निज अघवस सिला भई सुनिनारी, गृहृतें गदनि परास पद-पाबन, घोर सापते तारी ।...