पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१०३

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गुरु-अतुबुद्ि कि मुझे सेकसे अधिक कोई प्रिय नहीं। इस विचमें तुलसीदास श्रीरामानुजाचार्य अधिक नजदीक जाते हैं । महात्मा तुलसीदास इस इ-कोणके कारण समूचे रान-परक साहित्यका स्वर एक विशेष रूपसे प्रभावित हुआ हैं । मञ्जुश्भावकी साधनामें छोटे-बड़ेक सवाल नहीं उठता । वहाँ ऐश्वर्य-बोध ज़ितना ही कम होगा मधुर भावकी अनुभूति उतनी ही लीन होगी । पर दास्य-भाव ऐश्वर्य-बोधका होना बहुत आवश्यक हैं। इसीलिए अतिके लिए भक्तको भगदा के तीन रूपोंपर बहुत अधिक जोर देना पड़ता है। उनका (१) क्षमावान् रूप, (२) शरणागत-वत्सल रूप और (३) कणवृतन रूप ! इन स्वरूपोंके द्वारा भगवान् भक्तोंके बड़े से बड़े पातकको भी क्षमा कर देते हैं, उनके सामने जाते ही करोड़ जुन्के पाप नष्ट होजाई हैं, उनकी शरणमें जानेपर भक्त कृतकृत्य हो जाता है और इसके सभी परिताप जाते रहते हैं। गोस्वामी तुलसीदासने अपने ग्रंथों में बार बार इन स्वरूपोंका उल्लेख किया है । अधुर वैन न करनेवाले १ सब मम प्रिय सब सम्म उपजाये । सव अवक नजमोह भये । तिन्हमुँह द्विज द्विजसँह श्रुतिधारी ! तिन्हलँह निम्-धर्म अनुसारी ।। तिन्हमॅह प्रिय विरक्त पुनि ग्यानीं । ग्यानिहुँ अनि प्रिय बिग्यानी । तिन्हतें पुनि भोहि प्रिय निजदासा । जहि गति रि न दूसरि आसः ।। पुनि पुनि लय कहॐ तःहैं पाहीं । मह सेवक सम य उ नाई । -रमचरितमानस २ ( क ) मैं जानहुँ जिलऊ ! अपराविडुपर कप न काऊ । औ३---- कुर' कुटिल खल कुमति कलंक है नीच सिलि निरस निस्की । तेउ सुन रूरल सामु अाये । सट्टा प्रमु कैये अपनाय ।। ( ख ) नर हाई चरात्ररद्रोही ! श्राइ सरन समय तक भेःही । तांज मद माडु कपटे छऊ नाना । झरङ सय ताई ला मर! और--- केटि विप्र बध लागइ जाहू । ये सरन त नहिं ताहू ।। { * } ऐसी को उदार जगमाहीं। बिनु सदा जे द्रवे दनपर रामसरस कोउ नहीं। -विनयपत्रिका