पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१०१

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सगुया-मतवाद लीलाके वर्णनमें शान्त रसका कोई स्थान नहीं है। इसीलिए श्रीकृष्ण-लीलाके राविक भक्तोंने इस रसको विशेष गान नहीं किया । | दास्य स्वभावका प्रीतिरस दो प्रकारका होता है, संभ्रमगत और गौरवरात } } भगवान्के ऐश्वर्य-स्वरूपके प्रति संभ्रम और गुरुताको भाव रखनेवाले भक्त इसी । श्रेणीमें आते हैं । दास्य रसको विषवरूप अलम्बन, भगवान्की वह ऐश्वर्य रूप है जिसके इशारेपर माया कोटि कोटि ब्रह्माण्डकी सृष्टि करती है, जो राजाओंके भी राजा हैं, जिनकी शक्तिका एक एक कषु विश्वको द्भासित करता है और जो सत्य, न्याय और शुभ कर्म आदिके आकर हैं। भगवान्के इसी ऋद्धिसिद्धिसवित रूप प्रति आकृष्ट भक्त उनका दात होनेका अभिमान करता है । इस रसके आश्रयरूप आलंबन चार प्रकारके भक्त हैं—अधिकृत, आश्रित, पारिषद और अनुर। , भगवान्को भित्र रूपसे भजन करनेवाले भक्त सल्य स्वभावुके होते हैं। श्रीकृष्णके मित्र कई श्रेणीके थे, उनम क्रजवासी मित्र हैं। अधिक श्रेष्ठ समझे । जाते हैं। क्योंकि इन मित्रको भगदानके द्विभुज मानवरूपके अगोचर विराट रूपका भान कभी नहीं हुआ इसलिए उनकी मित्रताके संभ्रम या गौरवका कहीं प्रवेश नहीं हुआ । इसीलिए वे दास्य आदि भावोंसे सदा ऊपर रहे। ये भी चार प्रकार हैं-सुहृद्, सखा, प्रिय-सखा और प्रिय-नर्म-सुखा । सुहृद वे . थे जो श्रीकृष्णसे उमरमें बड़े थे; सखाके प्रेममें वात्सल्यका मिश्रण थाः प्रियसखा श्रीकृष्णकी क्रीड़ाके साथी थे और प्रिय-नर्म-सवा व्रजसुन्दरियोंके सुर भगवान्की प्रेम-लीलामें उनका पक्ष समर्थन करते थे । rue १ सुनु रबिन ब्रह्मांड निकाया । माइ बासु बल दिदि माया ।। जाके बल बिरंच हरि ईसा } पालत सृजत हुरत इसससा ।। जा बल सीस धरत सहसान्न । अंडकोस समेत गिरे कानन ॥ धेरै जो विविध देह सुरत्राता। तुम्हसे सठन्हें सिखावनदाता || हर-कोदंड कठिन जेहि भंजा | तोह समेत नृपदल-मूद गंजः ।। खर दूषन त्रिसरा अरु बाली | बचे सकल अतुलित बलसाली ।। जाके बल लवलेसटें जितेउ चराचर करि ।। तासु दूत हौं जाहिकी हरि आनेस प्रिय नारि ।


रामचरितमानस २ विशेष विस्तारके-लिए भक्ति-रसामृत-सिंधु' द्रष्टव्य है।