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हिंदी साहित्यकी भूमिका ९ प्रेम। प्रेमोदय हो जाने पर भक्तोंमें पाँच प्रकारके स्वभाव हो सकते हैं-शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और मधुर । इन पाँचों प्रकारके भक्तोंकी भगवद्विषयिणी रति भी पाँच प्रकार की होती है । यथ -- स्वभावका नाम तिका नाम शान्त शान्ति दास्य प्रीति प्रेय वात्सल्य =- = अनुकम्पा मधुर । कान्तई या मधुर काव्य-शास्त्रके अनुशीलन करनेवाले रस-शास्त्रियों के बताये हुए सात रस अथात् श्रृंगार और शान्तको छोड़कर शेष ( हास्य, अद्भुत, वीर, करुण, रौद्र, भयानक और बीभत्स ) इस भगवत्प्रेमके सहायक होकर गण रस नाम ग्रहण करते हैं। श्रृंगार और शान्तरस ऊपर बताये हुए पाँच स्थायी भावोंका आश्रय करते हैं । पर यह न समझना चाहिए कि आलंकारिकोंके शृंगार और शान्ति रस वही हैं जो भक्तोंके । दोनों में तात्विक भेद हैं । पहले जोन्मुख होते हैं, दूसरे ( भक्तोंके ) चिन्मुख । | यह बात ध्यान देनेकी है कि वैष्णव भक्त भगवान्के निर्विशेषक रूपको (अथात् जिसमें व्यक्तिगत संबंधकी कल्पना न की जा सके, ऐसे रूपको) कभी प्रधानता नहीं देते; फिर भी वे शान्त स्वभावके हो सकते हैं। भक्तिके लिए केवल. । निर्विशेष ब्रह्मसे काम नहीं चल सकता, उसके सविशेषक रूपकी जरूरत रहती है। इसीलिए शनयुक्ती बुद्धि वह है जहाँ भक्त केवल इतना समझ सका है कि भगवान् केवल निर्गुण और निविशेष नहीं हैं बल्कि उनके साथ उसका ब्यक्तिगत योग है । भगवत्तत्त्वमें उसकी जड़बुद्धि लोप हो गई रहती है। वह विषयोन्मुखताका त्याग कर अपने आपमें रमने लगता है। निर्गुण मतके भक्त इसी अणीके थे। कबीरदासको ‘कमलकुम ब्रह्मरस पीओ बारंबार' वाली समाधि, जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी है, इसी श्रीकी है। यह रस वहीं मुम्भव है जहाँ भगवद्विषयक निविशेषता समाप्त हो गई हो। इसीलिए वद्यपि भक्त इस अवस्थामें आत्माराम होता है अथात् अपने आप ही रमता रहता है फिर भी उसका उपास्य निर्गुण ब्रह्म नहीं होता । सनक सनन्दन आदि भक्तगण इसी श्रेणीके थे । किन्तु ब्रज