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टि०--कबीर का जन्म काल सं० १४५५ वि० एवं मृत्युकाल सं० १५७५ वि० स्वीकार किया जाता है। इनके नाम पर बहुत साहित्य मिलता है, जो सब का सब इनका नहीं है। ऊपर वर्णित सभी रचनाएँ भी कबीर की नहीं कही जा सकतीं। इनमें कबीर-पन्थ के अनुयायियों की रचनाएँ ही अधिक मात्रा में हैं।

१४. भगादास--१४१० ई० में उपस्थित।

कबीर के शिष्यों में से एक और लघु बीजक के संकलयिता या लेखक। देखिए विलसन, रेलिजस सेक्ट्स आफ़ हिन्दूज़ भाग १, पृष्ठ ७९; गार्सा द तासी, भाग १ पृष्ठ ११८.

१५. सुतगोपाल---१४२० ई० में उपस्थित।

कबीर के अन्य शिष्य और सुखनिधान के रचयिता। देखिए, विलसन, पूर्वानुसार, पृष्ठ ९०।

१६. कमाल कवि--बनारसी १४५० ई० में उपस्थित।

हजारा, राग कल्पद्रुम। यह कबीर के पुत्र थे। यह अपने पिता के कथनों के विरुद्ध दोहे ( Couplets ) बनाया करते थे, इसलिए यह कहावत-- "बूड़ा वंश कबीर का कि उपजो पूत कमाल।"

देखिए फ़ैलन की हिन्दुस्तानी डिक्शनरी–-उपजना, पृष्ठ १३।

१७. विद्यापति ठाकुर--दरभंगा जिले में बिसपी के रहनेवाले, १४०० ई० में उपस्थित।

राग कल्पद्रुम। रामानंद और कबीर द्वारा प्रसिद्ध बना दिये गये मध्य हिंदुस्तान को थोड़ी देर के लिए छोड़कर यदि हमें अपने पगों को थोड़ा और पूर्व की ओर मोड़ें, तो हम पूर्वी भारत के सर्वाधिक प्रसिद्ध वैष्णव कवियों में से एक को सन् १४०० ई० में उपस्थित पाएँगे। विद्यापति ठाकुर उस महान् गीत परम्परा के प्रवर्तक थे, जो बाद में संपूर्ण वैशाल में फैल गई; और उनका नाम आज तक कर्मनाशा से कलकत्ता तक प्रत्येक घर में सुपरिचित है। इन सीमाओं के अन्तर्गत बोली जानेवाली अनेक बोलियों में उनके गीतों के रूपान्तर हुए हैं और उनके अनुकरण पर नूतन गीतों की सृष्टि हुई है। उनके जीवन के सम्बन्ध में बहुत कम अभिज्ञता प्राप्त है। वह गनपति ठाकुर के पुत्र थे, जो जयदत ठाकुर के पुत्र थे। इस वंश के प्रवर्तक विष्णु शर्मन थे, जो विद्यापति से सात पीढ़ी पहले बिसपी, आजकल के विसफी, गाँव में रहते थे। यह गाँव सन् १४०० ई० में सुगौना के राजा शिवसिंह ( उस समय युवराज ) के द्वारा कवि को माफ़ी के तौर पर दिया गया था। कृष्णार्पण का अभिलेख अब भी उपलब्ध है। विद्यापति