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इतनी पृथक और दूरस्थ थीं, उस समय दोनों राष्ट्र अपने साहित्यिक गौरव के चरम शिखर पर पहुँच गए थे। विभिन्न वर्गों के जो लेखक इस युग में हुए, उनपर हमें अलग-अलग विचार करना चाहिए।

गायों के गोष्ठ वाले देश ब्रज में, जहाँ कृष्ण ने अपना शैशव बिताया था, जहाँ उन्होंने गोकुल की गोपियों के साथ प्रेम लीलाएँ की थीं, कृष्ण संप्रदाय की जड़ स्वभावतः दृढ़ता के साथ जमी और सोलहवीं शती में यह उस कृष्णोपासक संप्रदाय के कवियों का गढ़ था, जो वल्लभाचार्य और उनके पुत्र विट्ठलनाथ द्वारा प्रतिष्ठित हुआ था। उनके आठ प्रमुख शिष्यों में से, जो अष्टछाप नाम से वर्गवद्ध थे, कृष्णदास और सूरदास सर्वाधिक कुशल थे। अपने देशवासियों द्वारा यह बाद वाले [सूर], तुलसी के साथ-साथ काव्यकला की परम पूर्णता के सिंहासन के अधिकारी समझे जाते हैं, लेकिन यूरोपीय आलोचक इस बाद वाले कवि तुलसी को ही सर्वश्रेष्ठता का मुकुट पहनाना चाहेंगे और आगरा के इस अन्धे कवि को उससे नीचा, यद्यपि फिर भी बहुत ऊँचा, स्थान देंगे। इस वर्ग के एक और कवि का उल्लेख, उसकी संगीत-दक्षता की प्रसिद्धि के कारण, यहाँ किया जा सकता है। मैं तानसेन की ओर संकेत कर रहा हूँ, जो कवि होने के साथ-साथ, बादशाह अकबर का प्रधान दरबारी गायक भी था। सोलहवीं शती के कृष्ण भक्त कवियों के लिए, प्रमुख प्रामाणिक देशी सूत्र नाभादास की गूढ़ भक्तमाल और उसकी विविध टीकाएँ हैं।

जिस समय वल्लभाचार्य के अनुयायी ब्रज को स्व-संगीत से मुखरित कर रहे थे, अनति दूर पर स्थित दिल्ली के मुगल दरबार ने राज कवियों का एक मंडल ही एकत्र कर लिया था, जिसमें से कुछ साधारण प्रसिद्धि के ही कवि नहीं थे। टोडरमल, जो महान अर्थमंत्री होने के अतिरिक्त, उर्दू भाषा के स्वीकरण के तात्कालिक कारण थे, बीरवल, जो अकबर के मित्र और अनेक चमत्कारपूर्ण आशु कविताओं के रचयिता थे, अब्दुर्रहीम खानखाना और आमेर के मानसिंह, ए सब स्वयं भाषा के लेखक होने की अपेक्षा भाषा कवियों के आश्रयदाता होने की दृष्टि से अधिक प्रख्यात हैं; किन्तु नरहरि, हरिनाथ, करन और गंग अत्यंत उच्च कोटि के कवि समझे जाते हैं, जो उचित ही है।

राम का गुणानुवाद करनेवाले सर्वश्रेष्ठ कवि तुलसीदास (उपस्थित १६०० ई०, मृत १६२४ ई०) इन कवियों के मध्य में एक ऐसे स्थान को सुशोभित करते हैं, जो सर्वथा उनके ही योग्य है। चारों ओर से शिष्यों और अनुयायियों से घिरे रहने वाले ब्रज के वैष्णव संप्रदाय के प्रवर्तकों से कहीं भिन्न, वे बनारस में अपने यशोमंदिर में अकेले ही इतने उच्चासीन थे, जहाँ कोई पहुँच ही