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छन्दः शास्त्र, शब्द संग्रह, साहित्य और ऐसे ही अन्य अनेक विषयों पर लिखित शास्त्रीय ग्रन्थों के नाम हैं। भाषा कवियों में अपने ग्रन्थों में उनका रचनाकाल एवं अपने आश्रयदाता के उल्लेख करने की पद्धति होने के कारण, हिन्दुस्तान के साहित्य में, शिला लेखों के विद्यार्थियों को भी एक उर्वर खान मिलेगी। इसके अतिरिक्त, संस्कृत साहित्य में मूक बना हुआ इतिहास भी, इन भाषा कवियों द्वारा बराबर लिखा गया है और आज भी ऐसे ऐतिहासिक ग्रंथ उपलब्ध हैं, जिनका आधार वह सामग्री है, जो सुदूर नवीं शती में लिखी गई थी। अतः मैं केवल उन विद्वानों के ही समक्ष नहीं, जिन्होंने प्राकृत साहित्य की ही अब तक आराधना की है, बल्कि उन विद्वानों के भी समक्ष, जो नैषध की जटिलताओं में भ्रमण करना पसंद करते हैं अथवा 'द इंडियन ऐंटिक्वैरी' के 'कॉपर-प्लेट-ग्रांट्स' में ही लगे रहना चाहते हैं, ध्यानाकर्षण के इसके अधिकारों को प्रस्तुत करने का साहस करता हूँ।

इनका एक और भी अधिकार है जिसका मैं उल्लेख करना चाहूँगा, यह है इस नव गौड़ीय साहित्य का वास्तविक गुण। जो कुछ संस्कृत और प्राकृत के संबंध में कहा जाता है, उसके अतिरिक्त उत्तरकालीन संस्कृत और प्राकृत कविताएँ कृत्रिम रचनाएँ हैं, जो कक्ष में बैठकर, विद्वानों के द्वारा, विद्वानों के लिए लिखी गईं; किंतु नव गौड़ीय कवियों ने न छोड़नेवाले आलोचकों, जनता, के लिये लिखा। उनमें से अनेक ने प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण किया और जो कुछ देखा, लिखा। उन्होंने 'वृक्षों में वाणी’ पाई, और जो कुछ उन्होंने भली-भॉति अथवा यों ही सुना, उसकी जैसी व्याख्या की, वैसी ही अधिक अथवा अल्प जन-प्रियता उन्हें मिली; और उसी प्रकार उनकी रचनाएँ उनके बाद जीवित रहीं अथवा नहीं रहीं। अनेक ग्रंथ जीवित हैं, जिनके लेखकों का नाम हम जानते तक नहीं, किन्तु वे जनता के हृदयों में जीवित वाणी बनकर बचे हुए हैं, क्योंकि उन्होंने जन की सत्य और सुन्दर की भावना को प्रभावित किया।

आशा है कि तीनों अनुक्रमणिकाएँ लाभदायक सिद्ध होंगी। इनको यथासंभव शुद्ध रूप में प्रस्तुत करने में पर्याप्त परिश्रम किया गया हैं।

—जार्ज ए० ग्रियर्सन


१. उदाहरण के लिए, दयाराम ( संख्या ३८७ ) ने एक अत्यन्त लाभदायक 'अनेकार्थ' कोश लिखा था।

२---मेरा अभिप्राय उन ग्राम्य महाकाव्यों, बारहमासों, कजलियों और अन्य लोकगीतों से है। जो संपूर्ण भारत में प्रचलित हैं और जिनकी चर्चा पहले ही की जा चुकी है।