पृष्ठ:हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास.pdf/१४१

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इनमें से किसी को भी मैंने नहीं देखा है। इनमें अंतिम चार जिन छन्दों में लिखे गये हैं, उनके नाम पर हैं। (१६) कृष्णावली (राग कल्द्रुम)--ब्रजभाषा में । मुद्रित है और बाजारों में. मिलती भी है। यह कृष्ण जीवन से संबन्धित है, और मैं नहीं विश्वास करता कि यह उन्हीं तुलसीदास की कृति है, जिनपर मैं यहाँ विचार कर रहा हूँ। - इनमें से अनेक मुद्रित हैं, जो सर्वदा ही अत्यन्त अशुद्ध है और कुछ में टोकाएँ भी हैं। रामचरित मानस की अत्यन्त प्रसिद्ध टीकाओं में से एक रामचरनदास की टीका है। गीतावली, कवितावली और सतसई की श्रेष्ठतम टीकाएँ बैजनाथ की हैं। मंचरनदास की टीका लखनऊ के नवल किशोर द्वारा प्रकाशित है, पर अब मुद्रण बाह्य और अनुपलब्ध है। अन्य टीकाएँ किसी भी भारतीय बाजार में खरीदी जा सकती हैं। सभी टीकाकारों की प्रवृत्ति कठिन अंशों को छोड़ जाने की और सरल अंशों का ऐसा रहस्यमय अर्थ देने की है, जो तुलसी को कभी भी अभीष्ट नहीं थे। दुर्भाग्य से इनमें आलोचना- त्मक दृष्टि का सर्वथा अभाव है। यद्यपि कम से कम रामचरितमानस का पूर्णतया यथार्थ पाठ देने के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है, फिर भी टीका- कार इनका उल्लेख करने का सपना भी नहीं देखते और अपनी अन्तरात्मा पर ही पूर्ण विश्वास करते हैं। यहाँ मैं एक अतिगामी उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूँ। एक टीकाकार ने प्रत्येक कांड में क्रमशः कम होते . जाने वाले छन्दों की योजना बनाई, क्योंकि ग्रंथ का नाम मानस है और मानस (तालाब.) की सीढ़ियाँ ऊपर बड़ी होती हैं, नीचे गहराई की ओर छोटी होती जाती हैं। इस विचार से बढ़कर मनोरंजक और क्या बात हो सकती है, अतः . उसने अपनी धारणा के अनुकूल बनाने के लिए अपनी अभागी पोथी में कॉट छौंट की और उसे पर्याप्त सफलता के साथ प्रकाशित भी कराया। यह न तो उसके दिमाग में आया और न उसके पाठकों के, कि वह यह देखते कि क्या तुलसीदास ने ऐसा ही. और यही लिखा था । यदि उन्होंने यह सोचा होता, तो उनको यह उपहासास्पद सिद्धांत पहली ही झलक में स्पष्टहो गया होता । । । __ जहाँ तक तुलसीदास की शैली का संबंध है, वे सरलतम प्रवाहपूर्ण वर्ण- नात्मक शैली से लेकर जटिलतम सांकेतिक पद्य-प्रणाली तक सभी के आचार्य थे। उन्होंने सदैव पुरानी बैसवाड़ी बोली में लिखा है, और यदि एक बार इसकी विशेषताएँ भली भाँति समझ ली जाय, तो उनका रामचरित मानस - सरलता एवं आनंद के साथ पढ़ा जा सकता है । गीतावली और कवितावली में वे कुछ अधिक जटिल हो गए हैं, फिर भी इन्हें सानंद पढ़ा जा सकता है; दोहा- .