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पहले यह आमेर के राजा भगवानदास के दरबारी कवि थे, जिन्होंने अकबर के सिंहासनासीन होने के कुछ ही समय बाद इन्हें 'नज़र में दे दिया। इस समय यह अपनी कविताओं में 'ब्रह्म' कवि ही छाप रखते थे। अकबरी दरबार में यह पहले तो अत्यंत निर्धन थे, किंतु यह अत्यंत प्रत्युत्पन्नमति थे और अपनी शीघ्र धारणा शक्ति के लिए प्रसिद्ध थे। इनके चुटकुलों ने इन्हें शीघ्र ही सर्वप्रिय बना दिया। इनकी हिंदी कविताएँ भी बहुत पसंद की जाती थीं और अकबर ने इन्हें कविराय की उपाधि दी थी, तथा पास ही रहकर किए जानेवाले अन्य अनेक महत्वपूर्ण कार्य भी इन्हें दिए गए थे। नगरकोट इन्हें जागीर में दिया गया था, किंतु यह संदिग्ध है कि वस्तुतः यह इन्हें कभी मिला भी ! यूसुफ़जाइयों से जैत खाँ कोकह बिजावर में लड़ रहा था। उसकी सहायता के लिए सेना लेकर यह ९९० हिजरी ( १५८३ ई० ) में भेजे गए और वहीं लड़ाई में मारे गए। बदाऊना ( आईन-ए-अकबरी का अनुवाद पृष्ठ २०४) कहता है :-

"बीरबल भी, जो अपनी जान के डर से भग गया था, मारा गया और नर्क के कुत्तों की कतार में पहुँच गया और अपने जीवनकाल में उसने जो दुष्कृत्य किए थे, उनका इस प्रकार कुछ दण्ड उसे मिला।......। हजूर सलामत को और किसी अमीर के मरने की कोई इतनी फिकर नहीं थी, जितनी बीरबल के मरने की। उन्होंने कहा, 'अफ़सोस ! उस दरें में उसकी लाश भी नहीं मिली किं जला दी जाती। लेकिन अन्त में उन्होंने यह सोचकर संतोष किया कि बीरबल मांसारिक शृंखलाओं से अब पूर्णरूपेण मुक्त और स्वतंत्र हो गए और उनकी शुद्धि के लिए सूर्य की किरणें ही पर्याप्त हैं, अग्नि की कोई आवश्यकता नहीं। इस वर्ष ( १५८८ ई०) जो बहुत सी बे सिर पैर की गप्पें तमाम देश में उड़ी उनमें से एक अफवाह यह भी है कि दोज़खी बीरबल अभी जिन्दा है, गो कि असलियत यह थी कि वह उस समय सातवें नरक में जल रहा था। हिन्दुओं ने, जिनसे कि बादशाहं हमेशा घिरे रहते थे, देखा कि बीरबल की मृत्यु से बादशाह सलामत कितने दुखी और उदास हैं और उन्होंने गप उड़ा दि कि बीरबल नगरकोट की पहाड़ियों में जोगियों और संन्यासियों के साथ घूमता हुआ देखा गया है। बादशाह सलामत ने इस अफ़वाह को यह सोचकर यकीन कर लिया कि यूसुफजाइयों से हार जाने के सबब से बीरबल दरबार में आने से शरमा रहा है और साथ ही यह भी संभव हो सकता है कि वह इसलिए जोगियों के साथ देखा गया हो, क्योंकि वह संसार को कुछ नहीं समझता था।

_____________________________________________________ १. टाड, भाग. २, पृष्ठ ३६२, कलकत्ता संस्करण भाग २, पृष्ठ ३९०.