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हिंदी-साहित्य का इतिहास

का गुरु मानते हैं[१]। आरम्भ से ही कबीर हिंदू भाव की उपासना की ओर आकर्षित हो रहे थे। अतः उन दिनों जब कि रामानंदजी की बड़ी धूम थी, अवश्य वे उनके सत्संग में भी सम्मिलित होते रहे होंगे। जैसा आगे कहा जायगा, रामानुज की शिष्य परंपरा में होते हुए भी रामानंदजी भक्ति का एक अलग उदार मार्ग निकाल रहे थे जिसमें जाति-पाँति का भेद और खान पान का आचार दूर कर दिया गया था। अतः इससे कोई संदेह नहीं कि कबीर को 'राम नाम' रामानंदजी से ही प्राप्त हुआ। पर आगे चलकर कबीर के 'राम' रामानंद के 'राम' से भिन्न हो गए। अतः कबीर को वैष्णव संप्रदाय के अंतर्गत नहीं ले सकते। कबीर ने दूर दूर तक देशाटन किया, हठयोगियों तथा सूफी मुसलमान-फकीरों का भी सत्संग किया। अतः उनकी प्रवृत्ति निर्गुण उपासना की ओर दृढ़ हुई। अद्वैतवाद के स्थूल रूप का कुछ परिज्ञान उन्हें रामानंदजी के सत्संग से पहले ही था। फल यह हुआ कि कबीर के राम धनुर्धर साकार राम नहीं रह गए; वे ब्रह्म के पर्याय हुए––

दसरथ सुत तिहुँ लोक बखाना।
राम नाम का मरम हैं आना॥

  1. ऊजी के पीर और शेख तकी चाहे कबीर के गुरु न रहे हों पर उन्होंने उनके सत्संग से बहुत सी बातें सीखी इसमें कोई संदेह नहीं। कबीर ने शेख तकी का नाम लिया है पर उस आदर के साथ नहीं जिस आदर के साथ गुरु का नाम लिया जाता है; जैसे, "घट घट है अविनासी सुनहु तकी तुम शेख"। इस वचन में कबीर ही शेख तकी को उपदेश देते जान पड़ते हैं। कबीर ने मुसलमान फकीरों का सत्संग किया था, इसका उल्लेख उन्होंने किया है। वे झूँसी, जौनपुर, मानिकपुर आदि गए थे जो मुसलमान फकीरों के प्रसिद्ध स्थान थे।

    मानिकपुर हि कबीर बसेरी। मदहति सुनीं शेख तकि केरी॥
    ऊजी सुनी जौनपुर थाना। झूँसी सुनि पीरन के नामा॥

    पर सबकी बातों का संचय करके भी अपने स्वावभानुसार वे किसी को भी ज्ञानी या बड़ा मानने के लिये तैयार नहीं थे, सब को अपना ही वचन मानने को कहते थे––

    शेख अकरदीं सकरदीं तुम मानहु बचन हमार।
    आदि अंत औ जुग जुग देखहु दीठि पसारि॥