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फुटकल रचनाएँ

खुसरो के प्रायः दो सौ वर्ष पीछे की लिखी जो कबीर की बानी की हस्तलिखित प्रति मिली है उसकी भाषा कुछ पंजाबी लिए राजस्थानी है, पर इसमें पुराने नमूने अधिक हैं––जैसे, सप्तमी विभक्ति के रूप में इ (घरि=घर में) 'चला' 'समाया' के स्थान पर 'चलिया' 'चल्या' 'समाइया'। 'उनई आई' के स्थान पर 'उनमिवि आई' (झुक आई) इत्यादि। यह बात कुछ उलझन की अवश्य है पर विचार करने पर यह अनुमान दृढ़ हो जाता है कि खुसरो के समय में 'इट्ठ', 'बसिट्ठ' आदि रूप 'ईठ' (इष्ट, इट्ठ, ईठ), बसीठ (विसृष्ट,बसिट्ठ ,बिसिट्ठ, बसीठ) हो गए थे। अतः पुराने प्रत्यय आदि भी बोलचाल से बहुत कुछ उठ गए थे। यदि 'चलिया' 'मारिया', आदि पुराने रूप रखें तो पहेलियों के छंद टूट जायेंगे, अतः यही धारणा होती है कि खुसरो के समय में बोलचाल की स्वाभाविक भाषा घिसकर बहुत कुछ उसी रूप में आ गई थी जिस रूप में खुसरो मे मिलती है। कबीर की अपेक्षा खुसरो का ध्यान बोलचाल की भाषा की ओर अधिक था; उसी प्रकार जैसे अँगरेजों का ध्यान बोलचाल की भाषा की ओर अधिक रहता है। खुसरो का लक्ष्य जनता का मनोरंजन था। पर कबीर धर्मोपदेशक थे, अतः उनकी बानी पोथियों की भाषा का सहारा कुछ न कुछ खुसरो की अपेक्षा अधिक लिए हुए है।

नीचे खुसरो की कुछ पहेलियाँ, दोहे और गीत दिए जाते हैं––

एक थाल मोती से भरा। सबके सिर पर औंधा धरा॥
चारों ओर वह थाली फिरे। मोती उससे एक न गिरे॥

(अकाश)

एक नार ने अचरज किया। साँप मारि पिंजड़े में दिया॥
जों जों साँप ताल को खाए। सूखे ताल साँप मर जाए॥

(दीया बत्ती)

एक नार दो को ले बैठी। टेढी होके बिल में पैठीं॥
जिसके बैठे उसे सुहाय। खुसरो उसके, बल-बल जाय॥

(पायजामा)

अरथ तो इसका बूझेगा। मुँह देखो तो सूझेगा॥

(दर्पण)