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नयी धारा

जुगनुओं से उड़ मेरे प्राण खोजते हैं तब तुन्हे निदान।
पूर्व सुधि सहसा जब सुकुमारि सरल शुक-सी सुखकर सुर में।
तुम्हारी भोली बातें कभी दुहराती है उर में।

जिस प्रकार भावों या मनोवृत्तियों का स्वरूप बाह्य वस्तुओं के साम्य द्वारा सामने लाया जाता है, उसी प्रकार कभी कभी बाह्य वस्तुओं के साम्य के लिये आभ्यंतर भावों या मनोव्यापारों की ओर भी संकेत किया जाता है, जैसे––

अंचल के जब वे विमल विचार अवनि से उठ उठ कर ऊपर,
विपुल व्यापकता में अविकार लीन हो जाते वे सत्वर।

हिमालय प्रदेश में यह दृश्य प्रायः देखने को मिलता है कि रात में जो बादल खड्डों में भर जाते हैं वे प्रभात होते ही धीरे-धीरे बहुत-से टुकड़ों में बँट-कर पहाड़ के ऊपर इधर उधर चढ़ते दिखाई देने लगते है और अंत में अनंत आकाश में विलीन हो जाते हैं। इसका साम्य कवि ने अंचल ध्यान में मग्न योगी से दिखाया है जिसकी निर्मल मनोवृत्तियाँ उच्चता को प्राप्त होती हुई उस अनंत सत्ता में मिल जाती हैं।

पर 'छाया', 'वीचि-विलास,' 'नक्षत्र' ऐसी कविताओं में जहाँ उपमानों के ढेर लगे हुए हैं, बहुत से उपमान पुराने ढंग के खेलवाड़ के रूप में भी है, जैसे––

बारि-बेलि-सी फैल अमूल छा अपत्र सरिता के कूल,
विकसा औ सकुचा नव जात दिन नाल के फेनिल फूल।

(वीचि-विलास)

अहे! तिमिर चरते शशि-शावक।
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इंदु दीप-से दग्ध शलभ शिशु!
शुचि अलूक अब हुआ बिहान,
अंधकारमय मेरे उर में
आओ छिप जाओ अनजान।

(नक्षत्र)