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हिंदी-साहित्य का इतिहास

पंत जी की पहली प्रौढ़ रचना 'पल्लव' है, जिसमें प्रतिभा के उत्साह या साहस का तथा पुरानी काव्य-पद्धति के विरुद्ध प्रतिक्रिया बहुत बढ़ा-चढ़ा प्रदर्शन हैं। इसमें चित्रमयी भाषा, लाक्षणिक वैचित्र्य, अप्रस्तुत-विधान इत्यादि की विशेषताएँ प्रचुर परिमाण में भारी सी पाई जाती हैं। 'वीणा' और 'पल्लव' दोनों में अँगरेजी कविताओं से लिए हुए भाव और अँगरेजी भाषा के लाक्षक्षिक प्रयोग बहुत से मिलते हैं। कहीं कहीं आरोप और अध्यवसान व्यर्थ और अशक्त हैं, केवल चमत्कार और वक्रता के लिये रखे प्रतीत होते हैं, जैसे 'नयनों के बाल'=आँसू। 'बाल' शब्द जोड़ने की प्रवृत्ति बहुत अधिक पाई जाती हैं, जैसे, मधुबाल, मधुपों के बाल। शब्द का मनमाने लिंगों में प्रयोग भी प्रायः मिलता है। कहीं कहीं वैचित्र्य के लिये एक ही प्रयोग में दो दो लक्षणाएँ गुफित पाई जाती हैं––अर्थात् एक लक्ष्यार्थ से फिर दूसरे लक्ष्यार्थ पर जाना पड़ता हैं, जैसे––'मर्म पीड़ा के हास' में। पहले 'हास' का अर्थ लक्षण-लक्षणा द्वारा वृद्धि या विकास लेना पड़ता है। फिर यह ज्ञान कर कि सारा संबोधन कवि अपने या अपने मन के लिये करता है, हमें सारी पदावली का उपादान लक्षणा द्वारा लक्ष्णार्थ लेना पड़ता है "हे बढ़ी हुई मर्मपीड़ावाले मन!" इसी प्रकार कहीं कहीं दो दो अप्रस्तुत भी एक में उलझे हुए पाए जाते हैं, जैसे––"अरुण कलियों से कोमल घाव।" पहले 'घाव' के लिये वर्ण के सादृश्य और कोमलता के साधर्म्य में 'कली' की उपमा दी गई। पर 'घाव' स्वयं अप्रस्तुत या लाक्षणिक है, और उसका अर्थ है 'कसकती हुई स्मृति।' इस तरह एक अप्रस्तुत लाकर फिर उस अप्रस्तुत के लिये दूसरा अप्रस्तुत लाया गया है। इसी प्रकार दो दो उपमान एक मैं उलझे हुए हमे 'गुंजन' की इन पक्तियों में मिलते हैं––

अरुण अधरों की पल्लव-प्रात,
मोतियों-सा हिलता हिम-हास।

कहीं कहीं पर साम्य बहुत ही सुंदर और व्यंजक हैं। वे प्रकृति के व्यापारों के द्वारा मानसिक व्यापारों की बड़ी रमणीय व्यंजना करते हैं, जैसे––

तडित-सा सुमुखि! तुम्हारा ध्यान प्रभा के पलक मार उर चीर।
गूढ गर्जन कर जब गंभीर मुझे करता है अधिक अधीर,