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नई धारा

उस मूर्तिमती लाक्षणिकता का आभास, जो 'पल्लव' में जाकर अपनी हद को पहुँची है, 'वीणा' से ही मिलने लगता है, जैसे––

मारूत ने जिसकी अलकों में
चंचल चुंबन उलझाया।
अंधकार का अलसित अंचल
अब द्रुत ओढेगा, संसार
जहाँ स्वप्न सजते शृंगार।

'वीणा' के उपरांत 'ग्रंथि' है––असफल प्रेम की। इसमें एक छोटे-से प्रेम प्रसंग का आधार लेकर युवक कवि ने प्रेम की आनंदभूमि में प्रवेश, फिर चिर-विषाद के गर्त में पतन दिखाया है। प्रसंग की कोई नई उद्भावना नहीं है। करुणा और सहानुभूति से प्रेम का स्वाभाविक विकास प्रदर्शित करने के लिये जो वृत्त उपन्यासों और कहानियों में प्रायः पाए जाते है––जैसे, डूबने से बचानेवाले, अत्याचार से रक्षा करनेवाले, बंदीगृह में पड़ने या रणक्षेत्र में घायल होने पर सेवा शुश्रूषा करनेवाली के प्रति प्रेम-संचार––उन्हीं में से एक चुनकर भावों की व्यंजना के लिये रास्ता निकाला गया है। झील में नाव डूबने पर एक युवक डूबकर बेहोश होता है और आँख खुलने पर देखता है कि एक सुंदरी युवती उसका सिर अपने जंघे पर रखे हुए उसकी ओर देख रही है। इसके उपरांत दोनों में प्रेम-व्यापार चलता है; पर अंत में समाज के बड़े लोग इस स्वेच्छाचार को न सहन करके उस युवती का ग्रंथिबंधन दूसरे पुरुष के साथ कर देते हैं। यही ग्रंथिबंधन उस युवक या नायक के हृदय में एक ऐसी विषादग्रंथि डाल देता है जो कभी खुलती ही नहीं। समाज के द्वारा किस प्रकार स्वभावतः उठा हुआ प्रेम कुचल दिया जाता है, इस कहानी द्वारा कवि को यही दिखाना था। यद्यपि प्रेम का स्रोत कवि ने करुणा की गहराई से निकाला है पर आगे चल-कर उसके प्रवाह में भारतीय पद्धति के अनुसार हास-विनोद की झलक भी दिखाई है। कहानी तो एक निमित्त मात्र जान पड़ती है; वास्तव में सौंदर्य भावना की अभिव्यक्ति और आशा, उल्लास, वेदना, स्मृति इत्यादि की अलग -अलग व्यंजना पर ही ध्यान जाता है।