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हिंदी-साहित्य का इतिहास

द्वितीय उत्थान के भीतर हम दिखा आए हैं कि किस प्रकार काव्य-क्षेत्र का विस्तार बढ़ा, बहुत-से नए नए विषय लिए गए और बहुत से कवि कवित्त, सवैया लिखने से बाज आकर संस्कृत के अनेक वृत्तों में रचना करने लगे। रचनाएँ चाहे अधिकतर साधारण गद्य-निबंधों के रूप में ही हुई हो, पर प्रवृत्ति अनेक विषयों की ओर रही, इसमें संदेह नहीं। उसी द्वितीय उत्थान में स्वतंत्र वर्णन के लिये मनुष्येतर प्रकृति को कवि लोग लेने लगे पर अधिकतर उसके ऊपरी प्रभाव तक ही रहे। उसके रूप-व्यापार कैसे सुखद, सजीले और मुहावने लगते हैं, अधिकतर यही देख-दिखाकर उन्होंने संतोष किया। चिर-साहचर्य से उत्पन्न उनके प्रति हमारा राग व्यंजित न हुआ। उनके बीच मनुष्य-जीवन को रखकर उसके प्रकृत स्वरूप पर व्यापक दृष्टि नहीं डाली गई है। रहस्यमयी सत्ता के अक्षर-प्रसार के भीतर व्यंजित भावों और मार्मिक तथ्यों के साक्षात्कार तथा प्रत्यक्षीकरण की ओर झुकाव न देखने में आया है। इसी प्रकार विश्व के अत्यंत सूक्ष्म और अत्यंत महान् विधानों के बीच जहाँ तक हमारा ज्ञान पहुँचा है वहाँ तक हृदय को भी पहुँचाने का कुछ प्रयास होना चाहिए था, पर न हुआ। द्वितीय उत्थान-काल का अधिकांश भाग खड़ी बोली को भिन्न भिन्न प्रकार के पद्यों में ढालने में ही लगा।

तृतीय उत्थान में आकर खड़ी बोली के भीतर काव्यत्व का अच्छा स्फुरण हुआ। जिस देश-प्रेम को लेकर काव्य की नूतन धारा भारतेंदु काल में चली थी वह उत्तरोत्तर प्रबल और व्यापक रूप धारण करता आया। शासन की अव्यवस्था और अशांति के उपरांत अँगरेजों के शांतिमय और रक्षापूर्ण शासन के प्रति कृतज्ञता का भाव भारतेंदुकाल में बना हुआ था। इससे उस समय की देशभक्ति-संबंधी कविताओं में राजभक्ति का स्वर भी प्रायः मिला पाया जाता है। देश की दुःख दशा का प्रधान कारण राजनीतिक समझते हुए भी उसे दुःख-दशा से उद्धार के लिये कवि लोग दयामय भगवान् को ही पुकारते मिलते हैं। कहीं कहीं उद्योग धंधों को न बढ़ाने, आलस्य में पड़े रहने और देश की बनी वस्तुओं का व्यवहार न करने के लिये वे देशवासियों को भी कोसते पाए जाते हैं। सरकार पर रोष या असंतोष की व्यंजना उनमें नहीं मिलती। कांग्रेस की प्रतिष्ठा होने के उपरांत भी बहुत दिनों तक देशभक्ति की