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हिंदी-साहित्य का इतिहास

थे। उपनिषद् और वेदांत में उनकी अच्छी गति थी। सभा समाजों के प्रति उनका बहुत उत्साह रहता था और उनके अधिवेशनों में वे अवश्य कोई न कोई कविता पढ़ते थे। देश मे चलनेवाले आंदोलनों (जैसे, स्वदेशी) को भी उनकी वाणी प्रतिध्वनित करती थी। भारतेंदु, प्रेमघन आदि प्रथम उत्थान के कवियों के समान पूर्णजी में भी देशभक्ति और राजभक्ति का समन्वय पाया जाता है। बात यह है कि उस समय तक देश के राजनीतिक प्रयत्नों में अवरोध और विरोध का बल नहीं आया था और लोगों की पूरी तरह धड़क नहीं खुली थी। अतः उनकी रचना में यदि एक ओर 'स्वदेशी' पर देशभक्ति-पूर्ण पद्य मिलें और दूसरी ओर सन् १९११ वाले दिल्ली दरबार के ठाटबाट का वर्णन, तो आश्चर्य न करना चाहिए।

प्रथम उत्थान के कवियों के समान 'पूर्ण' जी पहले नूतन विषयों की कविता भी ब्रजभाषा में करते थे; जैसे––

विगत आलस की रजनी भई। रुचिर उद्यम की द्युति छै गई॥
उदित सूरज है नव भाग को। अरुन रंग नए अनुराग को॥
तजि बिछीनन को अब भागिए। भरत खंड प्रजागण जागिए॥

इसी प्रकार 'संग्राम-निदा' आदि अनेक विषयों पर उनकी रचनाएँ ब्रज-भाषा में ही हैं। पीछे खड़ी बोली की कविता का प्रचार बढ़ने पर बहुत सी रचना उन्होंने खड़ी बोली में भी की, जैसे 'अमल्तास', 'वसंत-वियोग', 'स्वदेशी कुंडल', 'नए सन् (१९१०) का स्वागत', 'नवीन संवत्सर (१९६७) का स्वागत', इत्यादि। स्वदेशी, देशोद्धार आदि पर उनकी अधिकांश रचनाएँ इतिवृत्तात्मक पद्यों के रूप में हैं। 'वसंतवियोग' बहुत बड़ी कविता है जिसमे कल्पना अधिक सचेष्ट मिलती है। उसमें भारत-भूमि की कल्पना एक उद्यान के रूप में की गई है। प्राचीनकाल में यह उद्यान सत्त्व-गुण-प्रधान, तथा प्रकृति की सारी विभूतियों से संपन्न था और इसके माली देवतुल्य थे। पीछे मालियों के प्रमाद और अनैक्य से उद्यान उजड़ने लगता है। यद्यपि कुछ यशस्वी महापुरुष (विक्रमादित्य ऐसे) कुछ काल के लिये उसे सँभालते दिखाई पड़ते हैं, पर उसकी दशा गिरती ही जाती है। अंत में उसके माली