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हिंदी-साहित्य का इतिहास

इस द्वितीय उत्थान के आरंभ-काल में हस पंडित महावीरप्रसादजी द्विवेदी को पद्य-रचना की एक प्रणाली के प्रवर्तक के रूप में पाते हैं। गद्य पर जो शुभ प्रभाव द्विवेदीजी का पड़ा, उसका उल्लेख गद्य के प्रकरण में हो चुका है[१]। खड़ी बोली के पद्य-विधान पर भी आपका पूरा पूरा असर पड़ा। पहली बात तो यह हुई कि उनके कारण भाषा में बहुत कुछ सफाई आई। बहुत से कवियों की भाषा शिथिल और अव्यवस्थित होती थी और बहुत से लोग ब्रज और अवधी आदि का मेल भी कर देते थे। 'सरस्वती' के संपादन-काल में उनकी प्रेरणा से बहुत से नए लोग खड़ी बोली में कविता करने लगे। उनकी भेजी हुई कविताओं की भाषा आदि दुरुस्त करके वे 'सरस्वती' में दिया करते थे। इस प्रकार के लगातार संशोधन से धीरे धीरे बहुत से कवियों की भाषा साफ हो गई। उन्हीं नमूनों पर और लोगों ने भी अपना सुधार किया है।

यह तो हुई भाषा-परिष्कार की बात। अब उन्होंने पद्य-रचना की जो प्रणाली स्थिर की, उसके संबंध में भी कुछ विचार कर लेना चाहिए। द्विवेदी-जी कुछ दिनों तक बंबई की ओर रहे थे जहाँ मराठी के साहित्य से उनका परिचय हुआ। उसके साहित्य का प्रभाव उनपर बहुत कुछ पड़ा। मराठी कविता में अधिकतर संस्कृत के वृत्तों का व्यवहार होता है। पद-विन्यास भी प्रायः गद्य का सा ही रहता है। बंगभाषा की-सी 'कोमलकांतपदावली' उसमें नहीं पाई जाती। इस मराठी के नमूने पर द्विवेदीजी ने हिंदी में पद्य-रचना शुरू की। पहले तो उन्होंने ब्रजभाषा का ही अवलंबन किया। नागरीप्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित 'नागरी तेरी यह दशा!" और रघुवंश का कुछ आधार लेकर रचित "अयोध्या का विलाप" नाम की उनकी कविताएँ संस्कृत वृत्तों में पर ब्रजभाषा में ही लिखी गई थीं। जैसे––

श्रीयुक्त नागरि निहारि दशा तिहारी।
होवै विषाद मैंने माहिं अतीव भारी॥



  1. देखो पृष्ठ ५२८।