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हिंदी-साहित्य का इतिहास

संकुचित करना है। अपने ही सुख दुःख के रंग में रँगकर प्रकृति को देखा तो क्या देखा? मनुष्य ही सब कुछ नहीं हैं। प्रकृति का अपना रूप भी है।

पं॰ अंबिकादत्त व्यास ने नए नए विषयों पर भी कुछ फुटकल कविताएँ रची हैं जो पुरानी पत्रिकाओं में निकली हैं। एक बार उन्होंने कुछ बेतुके पद्य भी आजमाइश के लिये बनाए थे, पर इस प्रयत्न में उन्हें सफलता नहीं दिखाई पड़ी थी, क्योंकि उन्होंने हिंदी का कोई प्रचलित छंद लिया था।

भारतेंदु के सहयोगियों की बात यहीं समाप्त कर अब हम उन लोगों की ओर आते है जो उनकी मृत्यु के उपरांत मैदान में आए और जिन्होंने काव्य की भाषा और शैली में भी कुछ परिवर्तन उपस्थित किया। भारतेंदु के सहयोगी लेखक यद्यपि देशकाल के अनुकूल नए नए विषयों की ओर प्रवृत्त हुए, पर भाषा उन्होंने परंपरा से चली आती हुई ब्रजभाषा ही रखी और छंद भी वे ही लिए जो ब्रजभाषा में प्रचलित थे। पर भारतेंदु के गोलोकवास के थोड़े ही दिन पीछे भाषा के संबंध में नए विचार उठने लगे। लोगों ने देखा कि हिंदी-गद्य की भाषा तो खड़ी बोली हो गई और उसमें साहित्य भी बहुत कुछ प्रस्तुत हो चुका, पर कविता की भाषा अभी ब्रजभाषा ही बनी है। गद्य एक भाषा में लिखा जाय और पद्य दूसरी भाषा में, यह बात खटक चली। इसकी कुछ चर्चा भारतेंदु के समय में ही उठी थी, जिसके प्रभाव से उन्होंने 'दशरथ विलाप' नाम की एक कविता खड़ी बोली में (फारसी छंद में) लिखी थी। कविता इस ढंग की थी––

कहाँ हो ऐ हमारे राम प्यारे। किधर तुम छोड़कर हमको सिधारे।
बुढ़ापे में ये दुख भी देखना था। इसी के देखने को मैं बचा था॥

वह कविता राजा शिवप्रसाद को बहुत पसंद आई थी और इसे उन्होंने अपने 'गुटका' दाखिल किया था।

खड़ी बोली में पद्य-रचना एकदम कोई नई बात न थी। नामदेव और और कबीर की रचना मे हम खड़ी बोली का पूरा स्वरूप दिखा आए है और यह सूचित कर चुके हैं कि उसका व्यवहार अधिकतर सधुक्कड़ी भाषा के भीतर हुआ करता था। शिष्ट साहित्य के भीतर परंपरागत काव्य-भाषा ब्रज-भाषा का