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नई धारा

कारे काम, राम, जलधर जल-बरसनवारे।
कारे लागत ताही सों कारन कों प्यारे॥
यातें नीक हैं तुम 'कारे' जाहु पुकारे।
यहे असीस देत तुमको मिलि हम सब कारे॥
सफल होहिं मन के सवही संकल्प तुम्हारे।

हीरक-जुबिली के अवसर पर लिखे "हार्दिक हर्षादर्श" में देश की दशा का ही वर्णन है। जैसे––

भय भूमि भारत में महा भयंकर भारत।
भए वीरवर सकल सुमट ऐहि सँग गारत॥
मरै विबुथ नरनाह सकल चातुर गुनमंडित।
बिगरी जनसमुदाय बिना पथदर्शक पंडित॥
नए नए मते चले, नए झगरे नित बाढे।
नए नए दुख परे सीस भारत पै गाढ़े॥

'प्रेमघन' जी की कई बहुत ही प्रांजल और सरस कविताएँ उनके दोनों नाटकों में है। "भारत-सौभाग्य" नाटक चाहे खेलने योग्य न हो, पर देश-दशा पर वैसा बड़ा, अनूठा और मनोरंजक नाटक दूसरा नहीं लिखा गया। उसके प्रारंभ के अंक में 'सरस्वती', 'लक्ष्मी' और 'दुर्गा’ इन तीनो देवियों के भारत से क्रमशः प्रस्थान की दृश्य बड़ा ही भव्य है। इसी प्रकार उक्त तीनों देवियों के मुँह से बिदा होते समय जो कविताएँ कहलाई गई हैं, वे भी बड़ी मार्मिक है। "हंसीरूदा सरस्वती" के चले जाने पर 'दुर्गा' कहती है––

आजु लौं रही अनेक भाँति धीर धारि कै।
पै न भाव मोहि बैठनो सु मौन मारि कै।
जाति हौं चली वहीं सरस्वती गई जहाँ॥

उदधृत कविताओं में उनकी गद्यवाली चमत्कार-प्रवृत्ति नहीं दिखाई पड़ती। अधिकांश कविताएँ ऐसी ही हैं। पर कुछ कविताएँ उनकी ऐसी भी है––जैसे, 'मयंक' और 'आनंद-अरुणोदय'––जिनमें कहीं लंबे लंबे रूपक है। और कहीं उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं की भरमार।

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