पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/६००

यह पृष्ठ प्रमाणित है।
५७५
गद्य-साहित्य की वर्त्तमान गति

भारत में मतवालेपन या फक्कड़पन की भावना अघोरपंथ आदि कुछ सप्रदायों में तथा सिद्ध बनने वाले कुछ साधुओं में ही चलती आ रही थी। कवियों के संबंध में इसकी चर्चा नहीं थी। यहाँ तो कवि के लिये लोकव्यवहार में कुशल होना आश्वयक समझा जाता था। राजशेखर ने काव्य-मीमांसा में कवि के जो लक्षण कहे हैं उससे यह बात स्पष्ट हो जायगी। यह ठीक है कि राजशेखर ने राज सभाओं में बैठनेवाले दरबारी कवियों के स्वरूप का वर्णन किया है और वह स्वरूप, एक विलासी दरबारी का है, मुक्त हृदय स्वच्छंद कवि का नहीं। पर वाल्मीकि से लेकर, भवभूति और पंडितराज तथा चंद से लेकर ठाकुर और पद्माकर तक कोई मद से झूमनेवाला, लोक-व्यवहार से अनभिज्ञ था बेपरवा फक्कड़ नहीं माना गया।

प्रतिभाशाली कवियों की प्रवृत्ति अर्थ में रत साधारण लोगों से भिन्न और मनस्विता लिए होती है तथा लोगों के देखने में कभी कभी एक सनक सी जान पड़ती है। जैसे और लोग अर्थ की चिंता में लीन होते हैं वैसे ही वे अपने किसी उद्भावित प्रसंग में लीन दिखाई पड़ते हैं। प्रेम और श्रद्धा के कारण लोग इन प्रवृत्तियों को अत्युक्ति के साथ प्रकट करते हुए 'मद में झूमना' 'स्वप्न में लीन रहना', 'निराली दुनिया में विचरना' कहने लगे। पर इसका यह परिणाम न होना चाहिए कि कवि लोग अपनी प्रशस्ति की इन अत्युक्त बातों को ठीक ठीक चरितार्थ करने में लगे।

लोग कहते हैं कि समालोचकगण अपनी बातें कहते ही रहते है, पर कवि लोग जैसी मौज होती है वैसी रचना करते ही हैं। पर यह बात नहीं है। कवियों पर साहित्य-मीमांसकों का बहुत कुछ प्रभाव पड़ता है। बहुतेरे कवि––विशेषतः नए––उनके आदर्शों के अनुकूल चलने का प्रयत्न करने लगते है। उपर्युक्त वादों के अनुकूल इधर बहुत कुछ काव्यरचना योरप में हुई, जिसका कुछ अनुकरण बँगला में हुआ। आजक़ल, हिंदी की जो कविता 'छायावाद' के नाम से पुकारी जाती है उसमें इन सब वादों का मिला जुला अभास पाया जायगा। इसका तात्पर्य यह नहीं कि इन सब हिंदी कवियों ने उनके सिद्धांत सामने रखकर रचना की है। उनके आदर्शों के अनुकूल कुछ कविताएँ योरप में हुईं, जिनकी देखा-देखी बँगला और हिंदी में भी होने लगीं।