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हिंदी-साहित्य का इतिहास

योरप में जिस प्रवाद का इधर सबसे अधिक फैशन रहा है वह है–– "काव्य का उद्देश्य काव्य ही हैं" या "कला का उद्देश्य कला ही है"। इस प्रवाद के कारण जीवन और जगत् की बहुत सी बाते, जिनका किसी काव्य के मूल्य निर्णय में बहुत दिनों से योग चला आ रहा था, यह कहकर टाली जाने लगीं कि "ये तो इतर वस्तुएँ है, शुद्ध कला-क्षेत्र के बाहर की व्यवस्थाएँ हैं। पाश्चात्य देशों में इस प्रवाद की योजना करनेवाले कई सामान खड़े हुए थे। कुछ तो इसमें जर्मन सौंदर्य-शास्त्रियों की, यह उद्भावना सहायक हुई कि सौंदर्य संबंधी अनुभव (AEsthetic experience) एक भिन्न ही प्रकार का अनुभव है जिसका और प्रकार के अनुभवों से कोई संबंध ही नहीं। इससे बहुतेरे साहित्यशास्त्री यह समझने लगे कि कला का मूल्य-निर्धारण भी उसके मूल्य को और सब मूल्यों से एकदम विच्छिन्न करके ही होना चाहिए। ईसा की १९वीं शताब्दी के मध्य भाग में ह्विस्लर (Whistler) ने यह मत प्रवर्तित किया जिसका चलन अब तक किसी न किसी रूप में रहा है। अँगरेजी में इम मत के सबसे प्रभावशाली व्याख्याताओं में डाक्टर ब्रेंडले (Dr. Bradley) हैं।

उन्होंने इस संबंध में कहा है––"यह (काव्य-सौंदर्य संबंधी) अनुभव अपना लक्ष्य आप ही है; इसका अपना निराला मूल्य है। अपने विशुद्ध क्षेत्र के बाहर भी इसका और प्रकार का मूल्य हो सकता है। किसी कविता से यदि धर्म और शिष्टाचार का भी साधन होता हो, कुछ शिक्षा भी मिलती हो, प्रबल मनोविकारो का कुछ निरोध भी संभव हो, लोकोपयोगी विधानों में कुछ सहायता भी पहुँचती हो अथवा कवि को कीर्ति या अर्थलाभ भी हो तो अच्छी ही बात है। इनके कारण भी उसकी कदर हो सकती है। पर इन बाहरी बातों के मूल्य के हिसाब से उसे कविता की उत्तमता की असली जाँच नहीं हो सकती। उसकी उत्तमता तो एक तृप्तिदायक कल्पनात्मक अनुभव-विशेष से संबंध रखती है। अतः उसकी परीक्षा भीतर से ही हो सकती है। किसी कविता को लिखते या जाँचते समय यदि बाहरी मूल्यों की ओर भी ध्यान रहेगा तो बहुत करके उसका मूल्य घट जायगा या छिप जाएगा। बात यह है कि कविता को यदि हम उसके विशुद्ध क्षेत्र से बाहर ले जायँगे तो उसका स्वरूप बहुत कुछ विकृत हो जाएगा,