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हिंदी-साहित्य का इतिहास

इसी प्रकार उस परोक्ष आलंबन को प्रियतम मानकर उसके साथ संयोग और वियोग की अनेक दशाओं की कल्पना इस पद्धति की विशेषता है। रवींद्र बाबू की 'गीतांजलि' की रचना इसी पद्धति पर हुई है। हिंदी में भी इस ढंग की रचनाएँ हुई जिनमें राय कृष्णदासजी की 'साधना', 'प्रवाल' और 'छायापथ', वियोगी हरि जी की 'भावना' और 'अंतर्नाद' विशेष उल्लेख योग्य हैं। हाल में श्री भँवरमल सिंघी ने 'वेदना' नाम की इसी ढंग की एक पुस्तक लिखी हैं जिसके भूमिका-लेखक हैं भाषातत्व के देश-प्रसिद्ध विद्वान् डाक्टर सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या।

यह तो हुई अध्यात्मिक या सांप्रदायिक क्षेत्र से गृहीत लाक्षणिक भावुकता, जो बहुत कुछ अभिनीत या अनुकृत होती है अर्थात् बहुत कम दशाओं में हृदय की स्वाभाविक पद्धति पर चलती है। कुछ भावात्मक प्रबंध लौकिक प्रेम को लेकर भी मासिक पत्रों में निकलते रहते हैं जिनमें चित्र-विधान कम और कसक, टीस, वेदना अधिक रहती है।

अतीत के नाना खंडों में जाकर रमनेवाली भावुकता का मनुष्य की प्रकृति में एक विशेष स्थान है। मनुष्य की इस प्रकृतिस्थ भावुकता का अनुभव हम आप भी करते हैं और दूसरों को भी करते हुए पाते हैं। अतः यह मानव-हृदय की एक सामान्य वृत्ति है। बड़े हर्ष की बात है कि अतीत-क्षेत्र में रमानेवाली अत्यंत मार्मिक और चित्रमयी भावना लेकर महाराजकुमार डाक्टर श्री रघुबीरसिंह जी (सीतामऊ, मालवा) हिंदी साहित्य-क्षेत्र में आए। उनकी भावना मुगल-सम्राटों के कुछ अवशिष्ट चिह्न सामने पाकर प्रत्यभिज्ञा के रूप में मुगलसाम्राज्य-काल के कभी मधुर, भव्य और जगमगाते दृश्यों के बीच, कभी पतनकाल के विषाद, नैराश्य और वेबसी की परिस्थितियों के बीच बड़ी तन्मयता के साथ रमी है। ताजमहल , दिल्ली का लाल किला, जहाँगीर और नूरजहाँ की कब्र इत्यादि पर उनके भावात्कक प्रबंधों की शैली बहुत ही मार्मिक और अनूठी हैं।

गद्य-साहित्य में भावात्मक और काव्यात्मक गद्य को भी एक विशेष स्थान है, यह तो मानना ही पड़ेगा। अतः उपयुक्त क्षेत्र में उसका आविर्भाव और