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गद्य-साहित्य की वर्त्तमान

जीजा॰––हाँ! यह एक बाधा है।

(सई बाई का बालक संभाजी को लिए हुए प्रवेश)

सई बाई––यह बाधा भी न रहेगी, माँजी!

प्राचीन नाट्यशास्त्र (भारतीय और यवन दोनों) में कुछ बातों का––जैसे, मृत्यु, बध, युद्ध––दिखाना वर्जित था। आजकल उस नियम के पालन की आवश्यकता नहीं मानी जाती। प्रसादजी ने अपने नाटकों में बराबर मृत्यु, बध और आत्महत्या दिखाई है। प्राचीन भारत और यवनान में ये निषेध भिन्न भिन्न कारणों से थे। यवनान में तो बड़ा भारी कारण रंगशाला का स्वरूप था। पर भारत में अत्यन्त क्षोभ तथा शिष्ट रुचि की विरक्ति बचाने के लिये कुछ दृश्य वर्जित थे। मृत्यु और बध अत्यंत क्षोभकारक होने के कारण, भोजन परिष्कृत रुचि के विरुद्ध होने के कारण तथा रंगशाला की थोड़ी सी जगह के बीच दूर से पुकारना अस्वाभाविक और अशिष्ट लगने के कारण वर्जित थे। देश की परंपरागत सुरुचि की रक्षा के लिये कुछ व्यापार तो हमे आजकल भी वर्जित रखने चाहिए, जैसे, चुबंन-आलिंगन। स्टेशन के प्लेटफार्म पर चुंबन-आलिंगन चाहे योरप की सभ्यता के भीतर हो, पर हमारी दृष्टि में जंगलीपन वा पशुत्व है।

इस तृतीय उत्थान के बीच हमारे वर्त्तमान नाटक-क्षेत्र में दो नाटककार बहुत ऊँचे स्थान पर दिखाई पड़े––स्व॰ जयशंकर प्रसादजी और श्री हरिकृष्ण 'प्रेमी'। दोनों की दृष्टि ऐतिहासिक काल की ओर रही है। 'प्रसाद' जी ने अपना क्षेत्र प्राचीन हिंदू-काल के भीतर चुना और 'प्रेमी' जी ने मुस्लिम-काल के भीतर। 'प्रसाद' के नाटकों में 'स्कंदगुप्त' श्रेष्ठ है और 'प्रेमी' के नाटकों में 'रक्षा बंधन'।

'प्रसाद' जी में प्राचीन काल की परिस्थितियों के स्वरूप की मधुर भावना के अतिरिक्त भाषा को रँगनेवाली चित्रमयी कल्पना और भावुकता की आधिकता भी विशेष परिमाण में पाई जाती है। इससे कथोपकथन कई स्थलों पर नाटकीय न होकर वर्त्तमान गद्य-काव्य के खंड हो गए हैं। बीच बीच में जो गान रखे गए हैं वे न तो प्रकरण के अनुकूल हैं, न प्राचीन काल की भाव-