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हिंदी-साहित्य का इतिहास


नाथ कौशिक का 'माँ', भिखारिणी', श्री प्रतापनारायण श्रीवास्तव का 'विदा', 'विकास' 'विजय', चतुरसेन शास्त्री का 'हृदय की प्यास'।

(३) समाज के भिन्न भिन्न वर्गों का परस्पर स्थिति और उनके संस्कार चित्रित करनेवाले, जैसे, प्रेमचंदजी का 'रंगभूमि', 'कर्मभूमि'; प्रसादजी का 'कंकाल' 'तितली'।

(४) अंतर्वृत्ति अथवा शील-वैचित्र्य और उसका विकासक्रम अंकित करानेवाले, जैसे, प्रेमचंदजी का 'गबन'; श्री जैनेंद्रकुमार का 'तपोभूमि', 'सुनीता'।

(५) भिन्न भिन्न जातियों और मतानुयायियों के बीच मनुष्यता के व्यापक-संबंध पर जोर देनेवाले। 'जैसे, राजा राधिकारमणप्रसादसिंह जी का 'राम रहीम'।

(६) समाज के पाखंड-पूर्ण कुत्सित पक्षों का उद्घाटन और चित्रण करनेवाले, जैसे, पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' का 'दिल्ली का दलाल', 'सरकार तुम्हारी आँखों में', 'बुधुवा की बेटी'

(७) बाह्य और आभ्यंतर प्रकृति की रमणीयता का समन्वित रूप में चित्रण करनेवाले, सुंदर शौर अलंकृत पद-विन्यास युक्त उपन्यास, जैसे स्वर्गीय श्री चंडीप्रसाद 'हृदयेश' का 'मंगल प्रभात'।

अनुसंधान और विचार करने पर इसी प्रकार और दृष्टियों से भी कुछ भेद किए जा सकते हैं। सामाजिक और राजनीतिक सुधारों के जो आंदोलन देश में चल रहे हैं उनका अभास भी बहुत से उपन्यासों में मिलता है। प्रवीण उपन्यासकार उनका समावेश और बहुत सी बातों की बीच कौशल के साथ करते हैं। प्रेमचंदजी के उपन्यासों और कहानियों में भी ऐसे आंदोलनों के अभास प्रायः मिलते है। पर उनमें भी जहाँ राजनीतिक उद्धार या समाजसुधार का लक्ष्य बहुत स्पष्ट हो गया है वहाँ उपन्यासकार का रूप छिप गया है। और प्रचारक (Propagandist) का रूप ऊपर आ गया।


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