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गद्य-साहित्य की वर्त्तमान गति

"देव और बिहारी" के झगड़े को लेकर पहली पुस्तक पं॰ कृष्णबिहारी मिश्र बी॰ ए॰ एल-एल॰ बी॰ की मैदान में आई। इस पुस्तक में बड़ी शिष्टता, सभ्यता और मार्मिकता के साथ दोनो बड़े कवियों की भिन्न भिन्न रचनाओं का मिलान किया गया है। इसमें जो बातें कही गई है, वे बहुत कुछ साहित्यिक विवेचन के साथ कही गई है, 'नवरत्न' की तरह यों ही नहीं कही गई है। यह पुरानी परिपाटी की साहित्य-समीक्षा के भीतर अच्छा स्थान पाने के योग्य है। मिश्रबंधुओं की अपेक्षा पं॰ कृष्णबिहारीजी साहित्यिक आलोचना के कही अधिक अधिकारी कहे जा सकते है। "देव और बिहारी" के उत्तर में लाला भगवानदीनजी ने "बिहारी और देव" नाम की पुस्तक निकाली जिसमे उन्होंने मिश्रबंधुओं के भद्दे आक्षेपों का उचित शब्दों से जवाब देकर पंडित कृष्णबिहारीजी की बातों पर भी पूरा विचार किया। अच्छा हुआ कि 'छोटे बड़े' के इस भद्दे झगड़े की शोर अधिक लोग आकर्षित नहीं हुए।

अब "तुलनात्मक समालोचना" की बात लीजिए। उसको ओर लोगो का कुछ आकर्षण देखते ही बहुतों ने 'तुलना' को ही समालोचना का चरम लक्ष्य समझ लिया और पत्रिकायों में तथा इधर उधर भी लगे भिन्न भिन्न कवियों के पद्यों को लेकर मिलान करने। यहाँ तक कि जिन दो पद्यों में वास्तव में कोई भाव-साम्य नहीं, उनमें भी बादरायण संबंध स्थापित करके लोग इस "तुलनात्मक समालोचना" के मैदान में उतरने का शोक जाहिर करने लगे। इसका असर कुछ समालोचकों पर भी पड़ा। पंडित् कृष्णबिहारी मिश्रजी ने जो "मतिराम ग्रंथावली" निकाली, उसकी भूमिका का आवश्यकता से अधिक अंश उन्होने इस 'तुलानात्मक आलोचना' को ही अर्पित कर दिया; और बातों के लिये बहुत कम जगह रखी।

द्वितीय उत्थान के भीतर 'समालोचना' की यद्यपि बहुत कुछ उन्नति हुई, पर उसका स्वरूप प्रायः रूढ़िगत (Conventional) ही रहा कवियों की विशेषताओं का अन्वेषण और उनकी अंतःप्रकृति की छानबीन करनेवाली उच्च कोटि की समालोचना का प्रारंभ तृतीय उत्थान में जाकर हुआ।