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गद्य-साहित्य का प्रसार


यह आगे प्रकट किया जायगा। पहले अनुवादों की बात खतम कर देनी चाहिए।

अनुवाद––सं॰ १९५१ तक बा॰ रामकृष्ण वर्मा उर्दू और अँगरेजी से भी कुछ अनुवाद कर चुके थे––'ठगवृत्तांतमाला' (सं॰ १९४६), 'पुलिस वृत्तांतमाला' (१९४७), 'अकबर' (१९४८), 'अमला वृत्तांतमाला' (१९५१)। 'चितौर चातकी' का बंगभाषा से अनुवाद उन्होंने सं॰ १९५२ में किया। यह पुस्तक चित्तौर के राजवंश की मर्यादा के विरुद्ध समझी गई और इसके विरोध में यहाँ तक आंदोलन हुआ कि सब कापियाँ गंगा में फेंक दी गईं। फिर बाबू कार्त्तिकप्रसाद खत्री ने 'इला' (१९५२) और 'प्रमीला' (१९५३) का अनुवाद किया। 'जया' और 'मधुमालती' के अनुवाद दो एक बरस पीछे निकले।

भारतेंदु-प्रवर्त्तित प्रथम उत्थान के अनुवादकों में भारतेंदुकाल की हिंदी की विशेषता बनी रही। उपर्युक्त तीनों लेखकों की भाषा बहुत ही साधु और संयत रही। यद्यपि उसमें चटपटापन न था पर हिंदीपन पूरा पूरा था। फारसी-अरबी के शब्द बहुत ही कम दिखाई देते हैं, साथ ही संस्कृत के शब्द भी ऐसे ही आए है जो हिंदी के परंपरागत रूप में किसी प्रकार का असामंजस्य नहीं उत्पन्न करते। सारांश यह कि उन्होने 'शूरता', 'चपलता', 'लघुता', 'मूर्खता', 'सहायता', 'दीर्घता', 'मृदुता' ऐसी संस्कृत का सहारा लिया है; 'शौर्य्य', 'चापल्य', 'लाघव', 'मौर्य्य', 'साहाय्य', 'दैर्घ्य' और 'मार्दव' ऐसी संस्कृत का नहीं।

द्वितीय उत्थान के आरभ में हमें बाबू गोपालराम (गहमर) बंगभाषा के गार्हस्थ्य उपन्यासों के अनुवाद में तत्पर मिलते हैं। उनके कुछ उपन्यास तो इस उत्थान (सं॰ १९५७) के पूर्व लिखे गए––जैसे 'चतुर चंचला' (१९५०), 'भानमती' (१९५१), 'नये बाबू' (१९५१)––और बहुत से इसके आरंभ में, जैसे 'बड़ा भाई' (१९५७), 'देवरानी जेठानी' (१९५८) 'दो बहिन' (१९५९), 'तीन पतोहू' (१९६१) और 'सास पतोहू'। भाषा उनकी चटपटी और वक्रतापूर्ण है। ये गुण लाने के लिये कहीं कहीं उन्होंने

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