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हिंदी-साहित्य का इतिहास

रोमियो जुलियट ('प्रेमलीला' के नाम से), ऐज यू लाइक इट और वेनिस का बैपारी। उपाध्याय बद्रीनारायण चौधरी के छोटे भाई पं॰ श्यामाप्रसाद चौधरी ने सं॰ १९५० में 'मैकबेथ' का बहुत अच्छा अनुवाद गानेंद्र नाटक नाम में प्रकाशित किया। इसके उपरांत सं॰ १९७९ में 'हेम्लेट' का एक अनुवाद 'जयंत' के नाम से निकला जो वास्तव में मराठी अनुवाद का हिंदी अनुवाद था।

संस्कृत के अनुवाद––संस्कृत के नाटकों के अनुवाद के लिए राय बहादुर लाला सीताराम बी॰ ए॰ सदा आदर के साथ व्यक्त किए गए थे। भारतेंदु के मृत्यु के दो वर्ष पहले ही उन्होंने संस्कृत काव्यों के अनुवाद से लुग्गा लगाया और सं॰ १९४० में मेघदूत का अनुवाद घनक्षरी छवी से प्रकाशित किया। इसके उपरांत वे बराबर किसी ना किसी काव्य, नाटक, का अनुवाद करते रहे। सं॰ १९४४ में उनका 'नागानंद' का अनुदान निकला। फिर तो धीरे-धीरे उन्होंने नृच्छकटिक, महावीर-चरित, उत्तर समरचित, मालती माधव मालविकाग्निमित्र का भी अनुवाद कर डाला। यदपि पद्यभाग के अनुवाद में लाला साहब को वैसी सफलता नहीं हुई पर उनकी हिंदी बहुत सीधी साधी सरल और आडंबर शून्य है। संस्कृत का भाव उनमें इस ढंग से लाया गया है कि कही संस्कृतपन या जटिलता नहीं आने पाई है।

भारतेंदु के समय में वे काशी के क्वींस-कालेज-स्कूल के सेकेंड मास्टर थे। पीछे डिप्टी कलेक्टर हुऐ और अंत में शान्तिपूर्वक प्रयाग में आ रहे जहाँ २ जनवरी १९३७ को उनका साकेवास हुआ।

संस्कृत के अनेक पुराण ग्रंथों के अनुवादक, रामचरितमानस, बिहारी सतसई के टीकाकार, सनातन धर्म के प्रसिद्ध व्याख्याता मुरादाबाद के पं॰ ज्वालाप्रसाद मिश्र ने 'वेणी-संहार' और 'अभिज्ञान शाकुन्तल' के हिंदी अनुवाद भी प्रस्तुत किए। संस्कृत की 'रत्नावली नाटिका' हरिश्चंद्र को बहुत पसंद थे। और उसके कुछ अंश का अनुवाद भी उन्होंने किया था, पर पूरा न कर सके थे। भारत-मित्र के प्रसिद्ध संपादक, हिंदी में बहुत ही सिद्धहस्त लेखक बा॰ बालमुकुंद गुप्त ने उक्त नाटिका का पूरा अनुवाद अत्यंत सफलतापूर्वक किया।